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मरणकण्डिका - ३२०
अर्थ - एकान्त में अपनी माता, बहिन एवं पुत्री को पाकर भी जब पुरुष का मन शीघ्र ही क्षोभ को प्राप्त हो जाता है तब शेष स्त्रियों के साथ एकान्तवास के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ! ।। ११४९ ॥ निःसारां मलिनां जीण, विरूपां रोगि दुर्दृशम् । तिरश्चीं वा समीहेत, नृ-मनो मैथुनं प्रति ।।११५० ।।
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अर्थ मनुष्य का मन सारहीन, मलिन, अतिवृद्धा, विरूप, रोगी एवं देखने में भयंकर कुरूप स्त्री को भी मैथुन के लिए चाहता है तथा काम के तीव्र उद्रेक में तिर्यञ्चनी के साथ भी मैथुन सेवन कर लेता है ।। ११५० ॥
अन्य प्रकार से स्त्री-संसर्ग
दृष्टश्रुतानुभूतानां विषयाणां रुचि -स्मृतिः ।
नारी - संसर्ग एषोऽपि विरहेऽप्यस्ति योषितः ।। ११५१ ।।
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अर्थ - निकट में स्त्री के विद्यमान न रहते हुए भी देखे सुने तथा अनुभूत विषयों की रुचि जाग्रत हो जाना या स्मृति आ जाना भी स्त्रीसंसर्ग ही कहा जाता है ।। ११५१ ॥
वृद्धो गणी तपस्वी च विश्वास्यो गुणवानपि । अचिराल्लभते दोष, विश्वस्तः प्रमदा - जने ॥ ११५२ ।।
अर्थ - वृद्ध हो, या आचार्य हो, या घोर तपस्वी हो, या सब का विश्वासभाजन हो, या गुणवान् हो, यदि वह स्त्रियों के विषय में विश्वस्त है, या उनसे संसर्ग रखता है तो वह शीघ्र ही अपयश का भागी होता है ।। ११५२ ।।
किं पुनर्विकृता-कल्पाः, स्वैरिणः शेष- साधवः ।
नारी - संसर्गतो नष्टा, न सन्ति स्वल्प कालतः ।। ११५३ ।।
अर्थ - जब महामुनि एवं महातपस्वियों की भी ऐसी गति हो जाती है, तब जो विकृत मन वाले हैं, स्वच्छन्द हैं एवं तरुण हैं ऐसे शेष साधु नारी के संसर्ग से स्वल्प काल में क्या नष्ट नहीं हो सकते ? हो ही सकते हैं ॥११५३ ॥
जैनिका- सङ्गतो नष्टश्चरणाच्छकटो यतिः । वेश्याया: सह संसर्गान्नष्टः कूपवरस्तथा ।। ११५४ ॥
रुद्रः पाराशरो नष्टो, महिला - रक्त्या दृशा ।
देवर्षिः सात्यकि - देवपुत्रश्च क्षण मात्रत: ।। ११५५ ॥
अर्थ - शकट मुनि जैनिका नामक ब्राह्मणी के संसर्ग से चारित्रभ्रष्ट हुए, कूपवर मुनि वेश्या की संगति कारण चारित्रभ्रष्ट हुए, रुद्र एवं पाराशर ऋषि स्त्रियों को आसक्तिपूर्वक देखने से नष्ट हुए थे और देवर्षि, देवपुत्र एवं सात्यकि मुनि स्त्री सम्पर्क से क्षणमात्र में नष्ट हो गये थे ।। ११५४-११५५ ।।