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मरणकण्डिका - २१८
उत्तर - इस हुण्डावसर्पिणी काल में भी सीता, अंजना, द्रौपदी, अनन्तमती, रयणमंजूषा एवं चन्दना आदि अनेक श्रेष्ठ नारियाँ सुनी जाती हैं जिन्होंने अपने शुद्ध शील के प्रभाव से देवों के आसन कम्पायमान किये थे, उनके द्वारा सिंहासन, छत्र, चमर, देवदुन्दुभिनाद एवं पुष्पवृष्टि आदि प्रातिहा प्रा किये थे एवं अपना निर्मल कीर्ति द्वारा जगत् को प्रकाशमान किया था। इससे यह सिद्ध होता है कि जैसे सब पुरुष दुष्ट एवं व्यभिचारी नहीं होते, ऐसे ही सर्व स्त्रियाँ दुष्टा, कुलटा एवं दुराचारिणी नहीं होती हैं।
शीलवन्त्यो विलोक्यन्ते, ता धन्या बुध-वन्दिताः।
समर्थाः शीतली-कर्तुं, या ज्वलन्तं हुताशनम् ।।१०४३॥ अर्थ - इस संसार में वे शीलवन्ती, धन्य नारियाँ भी देखी जाती हैं, जो जलती हुई अग्नि को शीतल करने में समर्थ हुई हैं और बुद्धिमानों अर्थात् बलभद्र-नारायणों द्वारा वन्दित हुई हैं ।।१०४३ ।।
सर्व-शास्त्र-समुद्राणां, वन्दितानां जगत्त्रये।।
सवित्र्यः सन्ति शीलान्याः, साधूनां घरमाङ्गिनाम् ।।१०४४ ।। अर्थ - इस जगत् में ऐसी भी शील-सम्पन्न माताएं हुई हैं जिन्होंने समस्त शास्त्र-समुद्र के पारगामी, त्रैलोक्यवन्दित एवं चरमशरीरी साधुओं को जन्म दिया है ॥१०४४।। ।
निमज्ज्यन्ते न पानीयैीयन्ते न नदी-जलैः।
सत्यो व्यालैर्न भक्ष्यन्ते, न दयन्ते, हुताशनैः ॥१०४५॥ अर्थ - जो सत्य है अर्थात् जिसका उत्तम शील है वह जल द्वारा डुबोया नहीं जा सकता, नदी के जलसमूह द्वारा बहाया नहीं जा सकता, व्याल-व्याघ्र आदि जंगली पशुओं द्वारा भक्षण नहीं किया जा सकता और अग्नि द्वारा जलाया भी नहीं जा सकता॥१०४५ ।।
मोहोदयेन जायन्ते, स्त्री-पुंसामशुभाः शुभाः।
परिणामा इति ज्ञात्वा, मोहो निन्द्यो न जन्तवः ॥१०४६ ॥ अर्थ - इस संसार में स्त्री और पुरुष दोनों के ही मोह के उदय से अशुभ और शुभ दोनों प्रकार के परिणाम हुआ करते हैं, ऐसा जान कर मोह की निन्दा करनी चाहिए, जीवों की नहीं ।।१०४६ ।।
साधारणेऽत्र सर्वेषां, जीवानामनिवारिते।
दुष्टाः सन्ति परीणामास्ततः कार्योऽस्य निग्रहः ॥१०४७ ॥ अर्थ - इस विचित्र संसार में सभी जीवों के भले-बुरे अर्थात् सुशील एवं कुशील रूप अनेक परिणाम निर्बाध रूप से होते रहते हैं। इनमें जो खोटे परिणाम हैं उनका कारण मोह का तीव्रोदय है अतः मोह का ही निग्रह करना चाहिए ।।१०४७ ।।
श्लाघ्या भवंति नार्योऽपि, शुद्ध-शीला महीयसा । स्त्री-पुमानिति कुर्वन्ति, शेमुषीं मन्द-मेधसः ।।१०४८ ॥