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मरणकण्डिका - ३०३
उत्तर - उदराग्नि के द्वारा खाया हुआ भोजन पूर्णरूपेण नहीं पकता अत: उसे आम कहते हैं और उसके स्थान को आमाशय कहते हैं, तथा जठराग्नि अथवा उदराग्नि के द्वारा पकाये हुए भोजन को पक्व कहते हैं और उसके स्थान को पक्वाशय कहते हैं। इन अपक्व एवं पक्व के मध्य में गर्भस्थान होता है। रुधिर तथा मांस के जाल को वस्तिपटल या जरायु कहते हैं। गर्भस्थ बालक इस जरायु द्वारा चारों ओर से वेष्टित रहता है।
मासमेकं स्थितोऽध्यक्षं, वर्ची मध्ये जुगुप्स्यते । निजोऽपिन कग, बालोव द तिः॥१०६१।।
इति क्षेत्रम्॥ अर्थ - गन्दे वमन के मध्य में एक मास पर्यन्त प्रत्यक्षरूप से रहने वाला व्यक्ति, भले वह अपना निकट बन्धु ही क्यों न हो, तो भी ग्लानि का ही पात्र होता है। तब माता द्वारा खाये गये वमनरूप स्थान में अर्थात् माता के अपवित्र गर्भ में नौ-दस मास तक रहने वाला यह शरीर ग्लानि का पात्र क्यों नहीं होगा, अवश्य होगा ।।१०६१॥
इस प्रकार क्षेत्र का वर्णन समाप्त ॥३॥
माता के उदर में प्राप्त होने वाला आहार पिच्छिलं चर्वितं दन्तैर्मिश्रितं श्लेष्मणा च यत् । अन्नं मात्राशितं युक्तं, पित्तेन कटुकात्मना ।।१०६२॥ अमेध्य-सदृशं वान्तं, समीरेण पृथस्कृतम् ।
ऊवं कटुकमश्नाति, विगलन्तमसौ रसम् ।।१०६३॥ अर्थ - माता के द्वारा खाया हुआ अन्न, प्रथम तो दाँतों से चबाया हुआ, फिर कफ के साथ मिलकर चिकना हुआ, फिर कटुक पित्त से युक्त वह मल एवं वमन समान गन्दा होता है। उस अन्न का खलभाग और रस भाग वायु के द्वारा अलग-अलग किया जाता है। ऊपर से गिरती हुई उसके रस की कड़वी बूंद को वह गर्भस्थ पिण्ड सर्वांग से सदैव ग्रहण करता रहता है।।१०६२-१०६३॥
ततोऽस्ति सप्तमे मासे, नाभी युत्पलनास्लवत्।
ततो नाभ्या तया वान्त, तदादत्ते स गर्भगः॥१०६४ ।। अर्थ - छह मास इसी प्रकार बीतते हैं। पश्चात् सातवें मास में कमलनाल सदृश (नाभि स्थान पर नाभि सहित) नाल उत्पन्न हो जाती है, तब से वह गर्भस्थ बालक उस नाल द्वारा माता द्वारा वमन किया हुआ आहार ग्रहण करता है ।।१०६४ ।।
अमेध्यं भक्षयनेकं, मासं दृष्टो जुगुप्स्यते । निजोऽपि न कथं गर्भे, मासान्नवदशानसौ॥१०६५॥
इति आहार ।।