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मरणकण्डिका
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मनुष्य शरीर के कथन हेतु बारह प्रकरण हैं
देहस्य बीज - निष्पत्ति - क्षेत्रान्धो जन्म - वृद्धयः । अंसाश्च निर्गमोऽशीचं ज्ञेयं व्याधिरनित्यता ।। १०५१ ॥
अर्थ - शरीर का बीज, उसकी निष्पत्ति, क्षेत्र, आहार, जन्म, गर्भ में आने के क्षण से शरीर की वृद्धि, अवयव, निर्गम, अशुचित्व, असारता, व्याधि और अनित्यता, इन बारह प्रकरणों द्वारा शरीर का वर्णन करेंगे ।। १०५१ ।।
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देह के बीज का वर्णन
देहस्याशुचिनिर्बीजं यतो लोहित - रेतसी ।
ततोऽसावशुचिज्ञेयो यथा गूथाज्य - पूरक: ।। १०५२ ॥
अर्थ - जैसे विष्ठा (मल) से बना घेवर अशुचि अर्थात् अपवित्र होता है, वैसे ही इस शरीर का बीज माता का रक्त और पिता का वीर्य है। जो स्वयं अपवित्र है अतः शरीर भी अपवित्र है ॥ १०५२ ॥
द्रष्टुं घृणायते देहो, वर्चो - राशिरिष स्फुटम् ।
स्प्रष्टुमालिङ्गितुं भोक्तुं तद्बीजो भुज्यते कथम् ।। १०५३ ।।
अर्थ - जैसे विष्ठा देखने योग्य नहीं है अपितु उसके देखते ही ग्लानि उत्पन्न होती है, वैसे ही जब शरीर को देखने मात्र से घृणा होती है तब उसका स्पर्शन करना, आलिंगन करना एवं मैथुन सेवन रूप भोगना कैसे शक्य है ? ||१०५३ ॥
कणिका - शुद्धितः शुद्धः, कणिका - घृत- पूरक: ।
वर्ची - बीजः कथं देहो, विशुद्ध्ययति कदाचन ।। १०५४ ।।
इति बीजं ॥
अर्थ- जैसे गेहूँ के आटे से बना घेवर शुद्ध होता है क्योंकि वह शुद्ध आटे से बना है, किन्तु जिसका to अशुद्ध है, उससे बना हुआ शरीर शुद्ध कैसे हो सकता है ।। १०५४ ।।
शरीर के बीज का वर्णन समाप्त ॥ १ ॥ शरीर की निष्पत्ति
दशाहं कललीभूतं दशाहं कलुषी - कृतम् ।
दशाहं च स्थिरीभूतं, बीजं गर्भेऽवतिष्ठते ॥ १०५५ ॥
अर्थ - गर्भ में स्थित माता का रज और पिता का वीर्य रूप बीज दस दिन तक कललरूप में, फिर आगे दस दिन तक कलुषित या कालिमा रूप में और आगे दस दिन तक स्थिर रहता है ।। १०५५ ॥
प्रश्न- कलल अवस्था का क्या अर्थ है ?