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मरणकण्डिका - ३१३
देखता हुआ स्त्री आदि पंचेन्द्रियों के विषयस्वाद में अत्यन्त प्रीति करता हुआ आसक्त हो रहा है।।१११४
प्रश्न - इस संसार वृक्ष के दृष्टान्त का क्या आशय है ?
उत्तर - इस दृष्टान्त का यह आशय है कि इस चतुर्गतिरूपी महावन में मानव देह रूपी वृक्ष है। सघन वन में समीचीन मार्ग भूल कर भटकने वाला पथिक “मैं स्वयं हूँ"। मृत्यु रूपी व्याघ्र प्रतिपल मेरे सामने आ रहा है। मैं भयभीत हुआ भागा, तो आकस्मिक दुख रूप हाथी ने मेरा पीछा किया। मैं दौड़ कर आयु कर्म रूपी डाल पकड़कर लटक गया । उस डाल को कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष रूपी दो चूहे प्रति समय कुतर रहे हैं। अर्थात् वेगपूर्वक मृत्यु के क्षण निकट आ रहे हैं। वृक्ष की डाली के उपरिम भाग में स्त्री-पुत्रादि परिवार रूपी मधुमक्खियों का गृहरूपी छत्ता लगा हुआ है, जो भोजन, पान, वस्त्राभूषण एवं संगीत आदि पंचेन्द्रिय के विषय रूपी मधु से भरा हुआ है। ऐसी भयंकर विकट परिस्थिति में पड़ा हुआ भी मैं उस विषयसेवन रूपी मधु की बिन्दुओं के स्वाद में आसक्त होता हुआ आशा के सहारे लटक रहा हूँ। अहो ! बड़ा आश्चर्य है। “धिक्-धिक मां" "किमाश्चर्यमत: परम्"।
इस प्रकार अध्रुव का वर्णन समाप्त ॥१२॥
शरीर की अशुचिता का अन्य भी कथन रामा-ध!-मध्यवर्ती मनुष्यः, क्रीडत्येषोऽमेध्य-रूपः शिशुर्वा ।
व!-लिप्तोऽमेध्य-मध्यं प्रवृत्तो, कीदृक्, सारं निन्दनीय-स्वभावम् ।।१११८।।
अर्थ - विष्ठा से लिप्त बालक जैसे विष्ठा में ही क्रीड़ा करता है अर्थात् उसमें सुख मानता है, वैसे ही यह मूढ मनुष्य स्वयं अत्यन्त मलिन है अतः कामोद्रेक में स्त्रीरूपी विष्ठा के मध्यवर्ती प्रदेश में क्रीड़ा करता है। अहो ! मनुष्य का यह निन्दनीय स्वभाव कैसे सारभूत हो सकता है ? नहीं हो सकता ॥१११८ ॥
अमेध्य-निर्माणममेध्य-पूर्ण, निषेवमाणैर्वनिताशरीरम्।।
बैर्मन्यते स्वं शुचिरस्त-बोधैर्हास्यास्पदं कस्य न ते भवन्ति ॥१११९॥
अर्थ - स्त्रियों का शरीर अशुचि पदार्थों से निर्मित है और अशुचि अर्थात् दुर्गन्धयुक्त मलादि से ही भरा हुआ है। जो नष्टबुद्धि मनुष्य, स्त्रियों के ऐसे शरीर का सेवन करते हुए भी अपने को पवित्र मानते हैं, उनकी यह पवित्रता या उनकी मान्यता किसके हास्यास्पद नहीं होगी? सभी के होगी॥१११९ ।।
'बीजादयो येन शरीर-धर्माश्चित्ते क्रियन्ते बुध-निन्दनीयाः।
निषेव्यतेऽमेध्यमयी न नारी, कदाचनामेध्य-कुटीव तेन ॥११२० ।।
अर्थ - बीज, निष्पत्ति, क्षेत्र एवं आहार आदि निन्दनीय शरीर के धर्म जिन बुद्धिमान् पुरुषों के द्वारा चिन्तनीय हैं, उनके द्वारा कभी भी अशुचि की कुटी सदृश अशुचिरूप नारी सेवित नहीं होती ॥११२० ।
निरीक्षते यो वपुषः स्वभावं, व!-निवासस्य विनश्वरस्य । देहे स्वकीयेऽपि विरज्यतेऽसौ, दोषास्पदायाः किमु नाङ्गनायाः ॥११२१॥
इति अशौचम्।।