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मरणकण्डिका - ३१०
कुथित-सानि वा कुथितैः कृते, कृमि-कुलैर्विविधैरभितो भृते । शुचि नृणां सकलाशुचि-मन्दिरे, भवति किञ्चन नात्र कलेवरे ।।११०३ ।।
इति अलारता। अर्थ - यह मानव शरीर सड़े पदार्थों का घर है, सड़े-गले पदार्थों से ही निर्मित है, नाना प्रकार के कीड़ों के समुदाय से चारों ओर भरा हुआ है एवं सम्पूर्ण अशुचियों का खजाना है; ऐसे इस कलेवर में पवित्र तथा सारभूत वस्तु कुछ भी नहीं है ।।११०३॥
इस प्रकार असारता का वर्णन समाप्त ॥१०॥
व्याधि वर्णन
एक शरीर में रोगों की संख्या यदि षण्णवति रोगाः, सम्भवन्ति विलोचने। कियन्तस्ते तदा नृणां सर्वत्रापि कलेवरे ॥११०४ ।। कोट्यः पञ्चाष्ट-षष्टीश्च, लक्षाः सह सहस्रकैः। नभिर्नवतिः पञ्चशत्याशीतिश्चतुर्युता॥११०५॥
इति वाधि-गदं ।। अर्थ - यदि एक नेत्र में छयानवे रोग सम्भव हैं, तो मानव के इस सम्पूर्ण शरीर में कितने रोग होंगे ? इस सारे शरीर में पाँच करोड़, अड़सठ लाख, निन्यानवे हजार, पाँच सौ चौरासी अर्थात् ५६८९९५८४ रोग साभव हैं ।।११०४-११०५॥
इस प्रकार व्याधि प्रकरण समाप्त ॥११॥ ___ अध्रुव अर्थात् अनित्यता का वर्णन
शरीर की अध्रुवता पीन-स्तनीन्दुवक्त्रा या, तारुण्ये हरते मनः।
अनिष्टा जायते जीर्णा, सेक्षु-यष्टिरिवारसा॥११०६ ।। अर्थ – पुष्ट स्तन वाली, पूर्ण चन्द्रमा सदृश मुख वाली तथा अति सुन्दरी जो नारी तरुण अवस्था में मन को हरती थी, वही नारी वृद्धावस्था में नीरस अर्थात् सूखे गन्ने के सदृश हो जाती है ||११०६ ।।
या यौवने प्रिया कान्ता, सर्वावयव-सुन्दरी।
दुर्गन्धा कुथिता सास्ति, बीभत्सा विरसा मृता॥११०७॥ अर्थ - जो कान्ता यौवन में सर्वांग सुन्दरी और अत्यन्त प्रिय अर्थात् सुहावनी थी, मर जाने पर वही नारी दुर्गन्धित, बीभत्स, ग्लानि युक्त एवं विरस हो जाती है ।।११०७॥