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मरणकण्डिका - ३०९
हा निन्दितं गन्ध, शुनजेला कलेगा।
हिवदिभिरिव द्रव्यैः, पिशितं विघृणात्मभिः ॥१०९७ ।। अर्थ - काली या मुलतानी आदि मिट्टी द्वारा, अंजन, पाषाण स्वरूप अनेक प्रकार के रत्न, धातु अर्थात् जल या स्वर्णादि द्वारा, वनस्पतियों की छाल, जड़ एवं बेल आदि पदार्थों द्वारा केशों को, मुखवास अर्थात् मुख को सुगन्धित करने वाले ताम्बूल आदि द्वारा तथा धूप, पुष्पमाला एवं अनेक प्रकार के पत्रों द्वारा दूसरे के शरीर की दुर्गन्ध को दूर करके मूढ़ जन मोहित होते हुए पराये शरीर को वैसे ही भोगते हैं जैसे मांसभोजी मनुष्य हींग, मिर्चादि मसाले मिलाकर दूसरों के शरीर का दुर्गन्धयुक्त मांस खाते हैं ।।१०९६-९७।।
मयूर-देहवद्देहो, यद्यभास्यन्निसर्गतः।
अभविष्यत्तदा शोभा, तस्मिन्नीक्षण-तोषिणी॥१०९८ ।। अर्थ - मयूर का शरीर स्वभाव से ही सुन्दर होता है, वैसे ही यदि यह शरीर स्वभाव से अर्थात् इत्र, फुलेल, स्नान एवं उबटन आदि के संस्कार बिना ही मनोहर होता तो उसकी शोभा नेत्रों को प्रसन्न करनी, किन्तु यह स्वत: सुन्दर एवं पवित्र नहीं है।।१०९८ ।।
आत्मनः पतितो खेलो, यदि स्प्रष्टुं घृणायते । तदा रामा-मुखाम्भो हि, पीयते कुथितं कथम् ॥१०९९ ।।
इति अशौचं ।। अर्थ - मनुष्य अपने मुख से बाहर पड़े अर्थात् गिरे हुए कफ या थूक का स्पर्श करने में जब घुणा का अनुभव करता है, तब स्त्री के मुख से उत्पन्न हुई दुर्गन्धयुक्त लार को कैसे पीवेगा॥१०९९ ।।
इस प्रकार अशौच का वर्णन समाप्त ।।९।।
असारता कथन वीक्ष्यमाणे मनुष्याणां, बहिरन्तश्च वीक्ष्यते।
एरण्ड-दण्डवद्देहो, न सारोऽत्र कदाचन ।।११०० ।। अर्थ - मनुष्यों के शरीर को जब भीतर से एवं बाहर से देखते हैं तो वह एरण्ड दण्ड के समान असार ही नजर आता है, इसमें कदाचित् भी सार दृष्टिगोचर नहीं होता ॥११०० ।।
चमरीणां कचं क्षीरं, गवां शृङ्गाणि खङ्गिनाम्। भुजङ्गानां मणिः पिच्छं, बर्हिणां करिणां रदः ॥११०१॥ कस्तूरिका कुरङ्गाणामित्थं सारो विलोक्यते ।
शरीरे न पुनर्गुणां, कोऽपि क्वापि कदाचन ।।११०२।। अर्थ - चमरी गाय के केश, गार्यों का दूध, हिरन के सींग, सौ की मणि, मयूर के पंख, हाथी के दाँत और हिरणों के नाभि की कस्तूरी इतने पदार्थ तिर्यंच के शरीर से कदाचित् कथंचित् सारभूत देखे जाते हैं किन्तु मनुष्यों के शरीर में कहीं पर कदाचित् भी कोई पदार्थ सारभूत दृष्टिगोचर नहीं होता ॥११०१-११०२।।