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मरणकण्डिका - २५५
यह संसारी प्राणी सबसे अधिक जन्म तिर्यंचगति में लेता है। देव-नारकियों की अपेक्षा भी मनुष्य गति में बहुत कम बार जन्म होता है, चारों गतियों के जीवों में से मनुष्य गति के जीवों की संख्या अल्प है। इनमें भी उच्चकुल और उच्चजाति वाले मनुष्य अल्पसंख्यक हैं।
जहाँ मनुष्य मद्यांग, तूर्यांग, वस्त्रांग, भोजनांग, पात्रांग, आभरणांग, माल्यांग, गृहांग, दीपांग और ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्षों से जीवनयापन करते हैं, मन्द कषायी होते हैं, मरकर देव-गति में ही जाते हैं, उन्हें भोगभूमिज मनुष्य कहते हैं।
जो मनुष्य लवण समुद्र और कालोद समुद्र-गत ९६ अन्तद्वीपों में जन्म लेते हैं ; कन्दमूल, फल एवं मिट्टी खाते हैं, पशुवत् आचरण करते हैं ; अभाषक, गूंगे, एक टांग वाले, पूंछ वाले, सींग वाले, दर्पणमुख, हाथी, घोड़ा, बिजली एवं उल्का मुख वाले एवं गजकर्ण, अश्वकर्ण तथा कर्णप्रावरण आदि रूप होते हैं उन्हें अन्तर्वीपज मनुष्य कहते हैं।
जो कर्मभूमियों में चक्रवर्ती, बलदेव आदि के कटक के मल, मूत्र, कफ, नाक, कान और दन्त-मल युक्त अपवित्र स्थानों में सम्मूर्छन-जन्म से जन्म लेकर शीघ्र ही मर जाते हैं, ये अपर्याप्तक ही होते हैं और इनके शरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें-भाग प्रमाण ही होती है, ऐसे मनुष्यों को सम्मूछेनज मनुष्य कहते
प्रश्न - किस-किस की उत्तरोतर उर्त है और क्यों ?
उत्तर - इस संसार में मनुष्य भव की प्राप्ति दुर्लभ है क्योंकि मनुष्य अल्पसंख्यक हैं। मनुष्य भव में भी उच्च जाति एवं उच्च कुल में जन्म अधिक दुर्लभ है। उच्च कुल में भी कई जीव गर्भ में, कोई बाल्य अवस्था में ही मर जाते हैं अत: दीर्घायु दुर्लभ है। दीर्घायु में भी अधिकांश मनुष्य हीनांग, अधिकांग, अंधे, गूंगे एवं बहरे होते हैं अतः इन्द्रियों की पूर्णता प्राप्त करना दुर्लभ है, इसके होने पर भी शारीरिक बल की प्राप्ति दुर्लभ है। यह होने पर भी सत्य बोलने की प्रवृत्ति का प्राप्त होना दुर्लभ है, इस पर भी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हिताहित के विवेक में समर्थ बुद्धि की प्राप्ति होना दुर्लभ है। इसके बिना प्राप्त भी मनुष्य भव उसी प्रकार निरर्थक है जैसे नेत्र बिना मुख और यथार्थता से रहित वचन व्यर्थ हैं। बुद्धि प्राप्त हो जाने पर भी श्रद्धा सहित आप्त वचनों को श्रवण करने की वाँछा जाग्रत होना अतिदुर्लभ है और इस वाँछा के बिना प्राप्त बुद्धि भी कमल रहित सरोवर के सदृश निष्फल है। उन वचों पर श्रद्धा दृढ़ होना दर्शनमोह के उदय के कारण अति दुर्लभ है। श्रद्धा सहित सुन लेने पर भी उसे ग्रहण एवं धारण कर लेना अतिदुर्लभ है। धारण किये हुए के अनुसार उस मार्ग में प्रवृत्त हो जाना अतिदुर्लभ है क्योंकि शारीरिक अनुकूलता एवं उत्तम गुरु की प्राप्ति के साथ-साथ चारित्रमोहनीय का उदय न होना आवश्यक है। इसकी प्राप्ति हो जाने पर भी बोधिरत्न की प्राप्ति होकर उसका मरण पर्यन्त स्थिर रहना अत्यधिक दुर्लभ है।
जीवघात से हुए दोष का माहात्म्य देवैरकं वृणीष्व त्वं, त्रैलोक्य-जीवितव्ययोः। इत्युक्तो जीवितं मुक्त्वा, त्रैलोक्यं वृणुतेऽत्र कः ॥८१६ ॥