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मरणकण्डिका - २६६
अर्थ - अवज्ञाकारक, वैर-कलह एवं त्रास को बढ़ाने वाले वचन, नहीं सुनने योग्य वचन और कटुक वचन ये सब अप्रिय वचन हैं, ऐसा बुद्धिमान् जन कहते हैं ।।८६५॥
प्रश्न - इन अप्रिय वचनों के क्या लक्षण हैं ? ।
उत्तर - अवज्ञावचन - 'तुझे धिक्कार है' इत्यादि । वैर-उत्पन्नकारक वचन-जैसे तू गधा है, तुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है, तेरे समान मूर्ख इस संसार में और कोई नहीं है, इत्यादि। कलहकारी वचन-जैसे 'अन्धों के अन्धे होते हैं जिससे महाभारत (युद्ध) हुआ | इत्यादि कलह उत्पन्न करने वाले या कलह को बढ़ानेवाले वचन । परुष वचन-जैसे तू अनेक दोषों का भण्डार है, इत्यादि मर्मच्छेदी वचन । कटु वचन-जैसे लगता है तू निंद्य जाति में उत्पन्न हुआ है, तू धर्मरहित है, तू पापी है', इत्यादि वचन।
रागद्वेष-मद-क्रोध-लोभ-मोहादि-सम्भवम् ।
वितथं वचनं हेयं, संयतेन विशेषतः॥८६२।। अर्थ - राग, द्वेष, मद, क्रोध, लोभ और मोहादि से उत्पन्न हुआ असत्य वचन संयतजनों द्वारा विशेष रूप से त्याज्य है।।८६२ ।।
सत्य वचन के लक्षण विपरीतं ततः सत्यं, काले कार्ये मितं हितम् ।
निर्भक्तादि-कथं ब्रूहि, तदेव वचनं शृणु ॥८६३ ।। अर्थ - हे क्षपक ! तुम उपर्युक्त असत्य वचनों से विपरीत सत्य वचन यथाकाल में और प्रयोजनवश ही हित-मित रूप से बोलो। तथा तुम स्वयं भोजनकथा आदि विकथाओं से रहित बोलो और ऐसे ही सत्य वचन सुनो।।८६३ ।।
प्रश्न - श्लोक में आये हुए 'काले एवं कार्ये' आदि पदों का क्या अभिप्राय है।
उत्तर - यहाँ काल का अर्थ है कि षड़ावश्यकों के समय के अतिरिक्त समय में वह भी अवसर देखकर ही बोलना चाहिए। कार्य का अर्थ है प्रयोजन । यथा-रत्नत्रय आदि की शिक्षा देने के लिए, असंयम का त्याग कराने के लिए या दूसरों को सन्मार्ग में प्रेरित या स्थापित करने के लिए सत्य वचन बोलना चाहिए। केवल अयोग्य या असत्य नहीं बोलना सत्यव्रत पालन नहीं है, अपितु विकथा आदि से वर्जित हित और मित बोलना तथा ऐसे ही विकथादि रहित वचन सुनना चाहिए, क्योंकि दूषित या असत्य भाषण अथवा वार्ता सुनने से अशुभ संकल्प होते हैं जिससे महान् कर्मबन्ध होता है।
नरस्य चन्दनं चन्द्र-चन्द्रकान्तमणिर्जलम् ।
न तथा कुरुते सौख्य, वचनं मधुरं यथा ।।८६४ ।। अर्थ - हितकारी, परिमित और मधुर वचन मनुष्य को जैसा सुख देते हैं, वैसा सुख चन्दन, चन्द्रमा, चन्द्रकान्तमणि एवं जल नहीं देता है ।।८६४ ।।
स्वकीये परकीये वा, धर्मकृत्ये विनश्यति। त्वमपृष्टो वदान्यत्र, पृष्ट एव सदा वद ।।८६५ ।।