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मरणकण्डिका - २७५
८. अतीत-रतिस्मरण - अतीत काल में भोगे हुए भोगों का या उन रतिक्रीड़ाओं का बार-बार स्मरण
करना।
९. अनागत अभिलाषा - भविष्य में मैं उनके साथ रतिक्रीड़ा करूँगा ऐसी अभिलाषा रखना।
१०. इष्टविषय-निषेवण - मनोवांछित भवन, उद्यान या इसी प्रकार के अन्य पदार्थों या विषयों का सेवन करना।
आपाते मधुरं रम्यमब्रह्म दशधाप्यदः ।
विपाके कटुकं ज्ञेयं, किम्पाकमिव सर्वदा।।९१२॥ अर्थ - इस प्रकार अब्रह्म के ये दस भेद किपाक फल सदृश विषैले हैं। ये प्रारम्भ में मधुर प्रतीत होते हैं किन्तु परिणाम में अत्यन्त कटु हैं ।।९१२ ।।
नारी-वैराग्य के उपाय दोषाः कामस्य नारीणामशौचं वृद्ध-सङ्गतिः।
सङ्ग-दोषाश्च कुर्वन्ति, स्त्री-वैराग्यं तपस्विनः ।।९१३ ॥ अर्थ - कामविकार से उत्पन्न दोष, स्त्रियों द्वारा किये गये दोष, देह-अशुचिता, वृद्धसंगति एवं स्त्री संसर्ग से उत्पन्न दोष, इन पाँच बातों का चिन्तन मुनियों के वैराग्य को दृढ़ करने वाला है।।९१३॥
१. कामजन्य दोष दृश्यन्ते भुवने दोषा, यावन्तो दुःखदायिनः ।
पुरुषस्य क्रियन्ते ते, सर्वे मैथुन-संज्ञया ॥९१४ ॥ अर्थ - इस जगत में दुखदायी जितने भी दोष हैं, वे सब पुरुष की मैथुन संज्ञा से ही किये जाते हैं।९१४॥
ध्यायति शोचति सीदति रोदिति, वल्गति भ्राम्यति नृत्यति गायति ।
क्लाम्यति माद्यति रुष्यति तुष्यति, जल्पति कामवशो विमना बहु॥९१५ ॥
अर्थ - काम के वशीभूत हुआ मनुष्य अन्यमनस्क होकर इष्ट स्त्री का ध्यान करता है, अप्राप्ति से शोक करता है, पीड़ित होता है, रोता है, अन्यथा बकता है, भ्रमित होता है, नाचता है, गाता है, खिन्न होता है, मत्त होता है, कुपित होता है, कभी उसकी प्राप्ति की आशा से सन्तुष्ट होता है एवं कभी व्यर्थ ही बोलने लगता है, इस प्रकार कामातुर मनुष्य नाना चेष्टाएँ करता है।।९१५ ।।
स्विद्यते निघते तप्यते मुल्यते, याचते सेवते मोदते धावते । मुञ्चते गौरवं गाहने लाघवं, किं न मयों विधत्ते मनोजातुरः॥९१६ ।। अर्थ - वह कामातुर कभी पसीने से तर हो जाता है, खेदित होता है, सन्तापित होता है, मोहित होता