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मरणकण्डिका - २८१
अर्थ - कुलीन और स्वाभिमानी होते हुए भी जब मनुष्य कामान्ध हो जाता है तब लज्जा छोड़कर नीच पुरुष की भी चाटुकारिता अर्थात् पैरादि दबाने के कार्य करने लगता है। इतना ही नहीं अपितु वचनों द्वारा अपने माता-पिता को भी उनके दास दासी कहता है अर्थात् चापलूसी करते हुए कहता है कि मेरे माता-पिता भी आपके दास दासी सदृश हैं ।। ९४५ ॥
न पश्यति सनेत्रोऽपि स श्रोत्रोऽपि शृणोति न । कामार्त: प्रमदा काङ्क्षी, दन्तीव हत-चेतनः ॥ ९४६ ॥
अर्थ - काम से पीड़ित, स्त्री का अभिलाषी पुरुष हथिनी के वश होने वाले वनहाथी के सदृश संमूढ़ अर्थात् विक्षिप्त चेतना युक्त हो जाता है अतः वह कामान्ध नेत्रवान् होकर भी देख नहीं पाता और कर्णयुक्त होकर भी सुन नहीं पाता ।। ९४६||
सलिलेनेव कामेन, सद्यो जाड्य विधायिना ।
दक्षोऽपि जायते मन्दो, नीयमानः समन्ततः ॥ ९४७ ॥
अर्थ - जैसे जलप्रवाह में डूबता हुआ पुरुष मूर्छित हो जाता है, वैसे ही काम द्वारा ग्रसित मनुष्य सर्व कलाओं में दक्ष होते हुए भी चारों ओर से मन्द अर्थात् मूर्छित सा हो जाता है ।। ९४७ ।।
वर्ष - द्वादशकं वेश्यां, निषेव्यापि स्मरातुरः । नाज्ञासीद्गोरसन्दीव:, पदाङ्गुष्ठमशोभनम् ॥ ९४८ ॥
अर्थ- गोरसंदीव नामा मुनि कामार्त होकर बारह वर्ष पर्यन्त वेश्या का सेवन करते हुए भी उसके पैर के नष्ट हुए अथवा कुष्ठ हुए अंगूठे को नहीं जान सके ।। ९४८ ।।
* गोरसंदीव नाम के भ्रष्ट मुनि की कथा *
श्रावस्ती नगरीका राजा द्वीपायन था । उसका दूसरा नाम गोरसंदीव या गोचरसंदीव था। एक दिन वह राजा वनक्रीड़ाके लिये जा रहा था। मार्गमें एक आम्रवृक्ष मंजरीसे भरा हुआ देखकर राजाने एक मंजरीको कौतुक तोड़ लिया। राजा आगे निकल गया। पीछे से आने वाले जनसमुदाय ने राजाका अनुकरण किया । अर्थात् सभीने एक-एक करके उस आम्रवृक्षकी मंजरी तोड़ ली। पुनः पत्ते तथा डालियाँ भी नष्ट कर दीं। राजा वनक्रीड़ा करके लौटा तो वृक्षको न देखकर पूछा। लोगोंसे वृक्ष नष्ट होनेका वृत्तांत सुना तथा वृक्षको केवल ठूंठसा खड़ा देखकर अकस्मात् राजाको वैराग्य हुआ और उसने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की। अब वे मुनि होकर विहार करते हुए उज्जयिनी में आहारार्थ पहुँचे। किसी एक घरके आंगनमें वे प्रविष्ट हुए। वह गृह कामसुंदरी वेश्या का था । वेश्या को देखकर मुनि मोहित होगये और वहीं रहने लगे।
ह वर्ष व्यतीत होगये। किसी दिन वेश्याके पैरके अंगूठेपर दृष्टि गयी तो देखा कि इसके अंगुष्ठमें कुष्ठ है। उससे पुनः वैराग्यभाव जाग्रत होनेसे उस द्वीपायन या गोरसंदीवने पुन: दीक्षा ग्रहण की।
इसप्रकार गोरसंदीव मुनि स्त्रीके रूप देखने में आसक्त होने से अपने चारित्र से भ्रष्ट हो गये थे ।