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मरणकण्डिका - २८०
अर्थ - वह कामासक्त प्राणी अनर्थकारी दुख, अनर्थकारी अपयश, पाप, धन का विनाश और संसारसागर में अपनी अनन्त भ्रमणता को नहीं जानता। अर्थात् इन पर विचार नहीं कर पाता ।।९४१ ।।
उच्चोपि सेवते नीचं, विषयामिष-काङ्क्षया।
स्मरातः सहतेऽवज्ञा, मानवानपि मानवः ।।९४२ ॥ अर्थ - विषयरूपी मांस का आकांक्षी मनुष्य उच्च-कुलीन होकर भी कुलादि से अत्यन्त हीन मनुष्यों की सेवा करता है। इतना ही नहीं वह विषयान्ध स्वाभिमानी होते हुए भी अवज्ञा सहन करता है ।।९४२ ॥
कुनीन निन्दिता कर्मा, बुकले विषयाशया।
जिघृक्षुर्नर्तकी वृत्तं, चारित्रं त्यक्तवान्न किम् ॥९४३ ।। अर्थ - कुलीन भी कामी पुरुष विषय-सेवन की इच्छा से निन्द्य कार्य करता है। क्या, नर्तकी को प्राप्त करने की इच्छावाले साधु ने अपना उत्तम आचरण वाला चारित्र नहीं छोड़ दिया था॥९४३ ।।
वात्रिक नाम के भ्रष्ट मुनि की कथा * कुरुजांगल देशमें दत्तपुर नगरमें शिवभूति ब्राह्मणके दो पुत्र थे, सोमशर्मा और शिवशर्मा । दोनोंको विप्रने वेद पढ़ाया। किसी दिन छोटा भाई शिवशर्मा वेदके सूत्रों का अशुद्ध उच्चारण कर रहा था। बड़े भाई सोमशर्माने उसको शुद्ध पढ़नेको कहा किन्तु वह पुनः पुनः अशुद्ध बोलता रहा तब बड़े भाईने उसको तीन बार चाँटे लगाये उस दिनसे सब लोग उसको वारत्रिक कहने लगे 'त्रिक मायने तीन और वार मायने बार' तीन बार मारनेसे वारत्रिक नाम प्रसिद्ध हुआ। आगे वह बालक वेद-वेदांगमें पारंगत हुआ, किन्तु लोगों द्वारा वारत्रिक नामसे पुकारे जानेसे उसे दुःख होता रहता, किसी दिन जैनमुनिसे धर्मोपदेश सुनकर उसको वैराग्य हुआ दीक्षा लेकर वह वारत्रिक देश-देशमें विहार करने लगा। एक दिन आहारार्थ नगरमें आ रहा था, मार्गमें एक कन्याकी बरातमें वेश्याका सुंदर नृत्य हो रहा था, उस नृत्यकारिणी पर वारत्रिक मुनि मोहित हो गये। नर्तकी और वारत्रिक अब साथ रहने लगे। घूमते हुए दोनों राजगृहनगरीमें राजा श्रेणिकके समीप अपनी सुंदर नृत्यकला दिखा रहे थे। राजसभामें एक विद्याधर उपस्थित था। उसको नृत्य देखते हुए जातिस्मरण हो गया और उसने नर्तकी आदिके पूर्वभव बताये जिससे वारत्रिक, नर्तकी तथा और भी अनेक प्रेक्षक लोगोंको वैराग्य हो गया, वारत्रिकने पुनः मुनिदीक्षा ग्रहण की। नर्तकीने अपने योग्य श्राविकाके व्रत स्वीकार किये। इस प्रकार वारत्रिक मुनि स्त्रीके रूपको देखने मात्रसे दीक्षासे भ्रष्ट हो गया था।
कामी शूरोपि तीक्ष्णोऽपि, मुख्योऽपि, भवति स्फुटम्।
विगर्वः श्रीमतो वश्यो, वैद्यस्य गदवानिव ॥९४४ ॥ अर्थ - जैसे रोगी पुरुष वैद्य के वश हो जाता है, वैसे ही शूरवीर होते हुए भी, तीक्ष्ण बुद्धि होते हुए भी और प्रधान पुरुष होते हुए भी कामी मनुष्य मान छोड़कर धनाढ्य मनुष्यों के आधीन हो जाता है॥९४४ ।।
विधत्ते चाटु नीचस्य, कुलीनो मानवानपि। मातरं पितरं वाचा, दासं कुर्वन्नपत्रपः ॥९४५।।