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मरणकण्डिका - २८८
अर्थ - स्त्रियाँ अनेक प्रकारों से पुरुष में विश्वास उत्पन्न करा लेती हैं किन्तु पुरुष अनेक उपायों द्वारा भी स्त्रियों को कदापि विश्वास उत्पन्न नहीं करा सकता ||९८१॥
स्वल्पेऽपि विहिते दोषे, कृत-दोष-सहस्रशः।
उपकारमवज्ञाय, स्वं निघ्नन्ति पतिं कुलम् ।।९८२ ।। अर्थ - स्वयं द्वारा किये हुए हजारों दोषों की उपेक्षा कर, पति द्वारा किये गये अल्प से भी दोष को न सहन करती हुई और पति ना कि गले मानों उ.कारों की साझा कर कुलटा नारी कभी स्वयं आत्मघात कर मर जाती है और कभी पति का तथा कुल का भी नाश कर डालती है।९८२ ।।
आशीविष इव त्याज्या, दूरतो नीति-हेतवः।
दुष्टा नृपा इव क्रुद्धास्ताः, कुर्वन्ति कुल-क्षयम् ॥९८३॥ अर्थ - हित की बात तो यह है कि कुलटा स्त्रियों को क्रुद्ध सर्प के सदृश दूर से ही त्याग देना चाहिए, कारण कि रुष्ट, दुष्ट एवं प्रचण्ड राजा के समान वे कुल का नाश कर देती हैं ॥९८३ ।।
अकृतेप्यपराधे ता, नीचाः स्वच्छन्द-वृत्तयः।
निघ्नन्ति निघृणाः पुत्रं, श्वसुरं पितरं पतिम् ।।९८४ ।। अर्थ - वे कुलटा स्त्रियाँ स्वच्छन्द प्रवृत्ति की इच्छा से निरपराध पुत्र, श्वसुर एवं पिता आदि को निर्दयतापूर्वक मार डालती हैं॥९८४ ।।
उपकारं गुणं स्नेह, सत्कारं सुख-लालनम्।
न मन्यन्ते परासक्ता, मधुरं वचनं स्त्रियः ॥९८५।। अर्थ - पर-पुरुष में जिनका चित्त आसक्त है वे स्त्रियाँ अपने पति के उपकार, गुण, स्नेह, सत्कार, सुखपूर्वक लालन-पालन एवं पति द्वारा बोले गये मधुर वचनों को भी नहीं गिनतीं ।।९८५ ।।
साकेताधिपतिर्देवरतिः प्रध्याव्य राज्यतः।
देव्या नदी-हदे क्षिप्तो, रक्त्या पल-रक्त्या ॥९८६॥ अर्थ - अयोध्यानगरी के राजा देवरति की रक्ता नाम की रानी थी। उसने एक पंगु, कुरूप, दुष्ट एवं दरिद्री पुरुष पर आसक्त होकर राज्य से च्युत होने वाले अपने पति को नदी के गहरे प्रवाह में डाल कर मार दिया था ।।९८६ ॥
* रक्ता रानीकी कथा * परपुरुष-आसक्त रक्ता नामकी रानी थी। उसका संक्षिप्त दुश्चरित्र इस तरह है कि अयोध्या नगरीका देवरति नामका राजा था। उसकी रक्ता रानी उसे प्राणोंसे भी अधिक प्यारी थी। उसके अत्यधिक प्रेमके कारण राज्यका त्यागकर राजा सदा अंत:पुरमें रहने लगा। अत: मंत्रियोंने उसे राज्यसे च्युत कर दिया। राजा रानीको लेकर अन्यत्र चला गया | वहाँ किसी पंगुके मधुर गानको सुनकर रक्ता उसपर आसक्त हो गयी और अपने पति