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मरणकण्डिका - २९९
भवन्ति सर्वदा योषा, मत्तास्तम्बेरमा इव । स्वं दासमिव मन्यन्ते, पुरुषं मूढ-मानसाः ॥ ९९६ ॥
अर्थ - मत्त हाथी सदृश मूढ़ स्त्रियाँ सदा मद से उन्मत्त रहती हैं, वे अपने पति को दास के समान मानती हैं ।। ९९६ ॥
शील - संयम - तपो बहिर्भवास्ता नरान्तर - निविष्ट-मानसाः । चिन्तयन्ति पुरुषस्य सर्वदा, दुःखमुग्रमपकारिणो यथा ॥ ९९७ ॥
अर्थ - जो स्त्रियाँ शील, संयम एवं तप से रहित हैं एवं जिनका मन पर-पुरुष में अनुरक्त हैं वे नारियाँ शत्रु के समान सदा अपने पति को भयंकर से भयंकर कष्ट देने का ही चिन्तन करती रहती हैं ॥ ९९७ ॥ कुर्वन्ति दारुणां पीडामामिषाशन - लालसाः ।
अपराधं विनाप्येताः पुंसां व्याघ्रा इवाधमाः ।। ९९८ ।।
अर्थ - जैसे मांसभोजन की लालसा से व्याघ्र निरपराध मनुष्यों को दारुण दुख देता है अर्थात् मार डालता है, वैसे ही कामार्त अधम स्त्रियाँ पुरुषों को निरपराध ही दारुण दुख देती हैं ॥ ९९८ ॥
शम्पेव चञ्चला नारी, सन्ध्येव क्षणरागिणी । छिद्रार्थिनां भुजङ्गीव, शर्वरीव तमोमयी ॥ ९९९ ॥
अर्थ - कुलटा नारी बिजली सदृश चंचल, सन्ध्या की लालिमा सदृश क्षणानुरागी, बिल की इच्छुक सर्पिणी सदृश पर छिद्रान्वेषी और रात्रि सदृश अन्धकारमय होती है ।। ९९९ ।।
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सिकता - तृण - कल्लोल - रोमाणि भुवनत्रये ।
यावन्ति सन्ति तावन्ति, मानसानि मृगीदृशाम् । १००० ॥
अर्थ - तीनों लोकों में बालू के जितने कण हैं, जितने तृण हैं, समुद्र में जितनी लहरें हैं और मनुष्यों के शरीरों पर जितने रोम हैं, दुराचारिणी स्त्रियों के मनो विकल्प उनसे भी अधिक होते हैं || १००० || नग - भूमि- नभीऽम्भोधिसलिलक्षर्नभः स्वताम् ।
शक्यन्ते परिमा कर्तुं स्त्री - चित्तानां न सर्वथा ।। १००१ ।।
अर्थ संसार में पर्वत, भूमि, आकाश, सागर का जल और नभ के तारे, इन पदार्थों का कुछ तो
परिमाण जानना शक्य है किन्तु व्यभिचारिणी नारी के मन में निरन्तर उत्पन्न होने वाले संकल्प-विकल्पों का परिमाण जान लेना अशक्य है ।। १००१ |
यथा समीरणोल्काम्भो - बुद्बुदाश्चिर - रोचिषः ।
एकत्र नावतिष्ठन्ते, तथैताश्चल वृत्तयः ॥ १००२ ॥
अर्थ - जैसे वायु, उल्का, जल के बुलबुले एवं बिजली बहुत समय तक एक स्थान पर नहीं टिकते, वैसे ही कुलटा स्त्रियों की प्रीति एक पुरुष में बहुत समय तक नहीं रहती || १००२ ॥