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मरणकण्डिका - २९२
गृहीतुं शक्यते जातु, परमाणुरपि ध्रुवम्।
न सूक्ष्मं योषितां स्वान्तं, दुष्टानामिव चञ्चलम् ॥१००३ ।। अर्थ - कदाचित् मनुष्य द्वारा परमाणु का ग्रहण शक्य है किन्तु दुष्ट मनुष्यों के चंचल मन सदृश स्त्रियों के चित्तगत सूक्ष्म अभिप्राय को समझ पाना शक्य नहीं है ।।१००३।।
कहाः काठीरमः सर्गः, स्वीकतु जातु शक्यते।
न चित्तं दुष्ट-वृत्तीनामेतासामसिभीषणम्।।१००४॥ अर्थ - क्रोधित सिंह, क्रोधित सर्प एवं गज आदि को पकड़ना शक्य है किन्तु दुष्ट एवं दुराचारिणी इन स्त्रियों की अतिभीषण चित्तवृत्ति को पकड़ लेना शक्य नहीं है।।१००४ ।।
रूपं सन्तमसि द्रष्टुं, विद्युत्-द्योतेन पार्यते ।
चेतश्चल-स्वभावानां,योषाणां न कथञ्चन ।।१००५॥ अर्थ - बिजली के प्रकाश में अपने नेत्र में स्थित रूप को देखना शक्य है, किन्तु स्त्रियों के अति चंचल चित्त को जान लेना या पकड़ लेना शक्य नहीं है ।।१००५ ।।
हरन्ति मानसं रामा, नराणामनुवर्तनैः ।
तावद्यावन्न जानन्ति, रक्तं कुटिल-चेतसः॥१००६ ॥ अर्थ - कुटिल स्वभाव वाली स्त्रियाँ अपनी मधुर वाणी एवं हास्य आदि के द्वारा पुरुष के अनुकूल वर्तन कर उसके चित्त का तब तक हरण करती हैं जब तक कि उस पुरुष को अपने में अनुरागयुक्त हुआ नहीं जानतीं ॥१००६॥
हसितैः रोदनैर्वाक्यैः, शपथैर्विविधैः शठाः ।
अलीकैर्मानसं पुंसां, गृह्णन्ति कुटिलाशया:॥१००७ ।। अर्थ - कफ्ट मन वाली शठ स्त्रियाँ बनावटी हास्य वचनों से, बनावटी रुदन से, विविध वाक्यों से और नाना प्रकार की झूठी शपथों से पुरुष के चित्त का हरण करती रहती हैं।।१००७।।
हरन्ति पुरुषं वाचा, चेतसा प्रहरन्ति ताः।
वाचि तिष्ठति पीयूषं, विषं चेतसि योषिताम् ।।१००८॥ अर्थ - कुटिल स्त्रियों के वचनों में अमृत और हृदय में विष भरा रहता है, अत: वे मधुर वचनों द्वारा पुरुष के चित्त को आकृष्ट करती हैं और पापपूर्ण हृदय से उसका घात करती हैं ।।१००८॥
पाषाणोऽपि तरेत्तोये, न दहेदपि पावकः ।
न चित्तं पुरुष स्त्रीणां, प्राञ्जलं जातु जायते ।।१००९ ।। अर्थ - कदाचित् पाषाण जल में तैरने लग जाय, अग्नि अपना दाहक स्वभाव छोड़कर शीतल हो जाय, किन्तु दुराचारिणी स्त्री का मन पुरुष के प्रति कभी सरल नहीं हो सकता ।।१००९ ।।