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परणकण्डिका - २८४ |
यत्र तत्र प्रदेशे तामन्धकारे कथञ्चन।
अवाप्य त्वरितो भीतो, रति-सौख्यं किमश्नुते ॥९६२॥ अर्थ - जहाँ-तहाँ किसी भी स्थान पर एवं अन्धकार में जिस किसी प्रकार से उस स्त्री को प्राप्त करके भी वह भयभीत पुरुष शीघ्रता से सेवन करते हुए रतिसुख को किस प्रकार पा सकता है ।।९६२ ।।
सर्वस्व-हरणं रोधं, वधं बन्धं भयं कलिम्।
तज्ज्ञाति-पार्थिवादिभ्यो, लभते पारदारिकः ।।९६३॥ अर्थ - पर-स्त्री का सेवन करने वाला कामी पुरुष उस स्त्री के जाति या कुटुम्बीजनों के द्वारा या राजादि के द्वारा सर्वस्व-हरण, विरोध, वध, बन्धन, भय एवं कलह को प्राप्त होता है ।।९६३॥
अनर्थ-कारणं पुंसां, कलत्रे स्वेपि मैथुने।
करोति कल्मषं घोरं, परकीये न किं पुनः ॥९६४। अर्थ - यदि अपनी पत्नी के साथ मैथुन-सेवन भी अनर्थ का कारण होता है तो परस्त्री-सेवी को अति घोर पाप का बन्ध क्यों नहीं होगा ? क्योंकि उसमें अलह के माथ चोरी का भी दोष है ।।९६४॥
यथाभिव्य-माणासु, स्वस-मातृ-सुतादिषु ।
दुःखं सम्पद्यते स्वस्य, परस्यापि तथा न किम्॥९६५॥ अर्थ - अपनी बहिन, माता एवं पुत्री आदि के प्रति यदि कोई अभद्र व्यवहार करे तो जैसे हमें दुख होता है, वैसे ही दूसरों की माँ-बहिन आदि के विषय में अभद्र व्यवहार करने पर दूसरों को भी क्या दुख नहीं होगा? अवश्य ही होगा ॥९६५ ।।
इत्थमर्जयते पापं, पर-पीडा-कृत्तोद्यमः।।
स्त्री-नपुंसकवेदं च, नीचगोत्रं दुरुत्तरम् ॥९६६ ॥ अर्थ - इस प्रकार परस्त्री-गामी पुरुष अन्य की माता-बहिन के सेवन से पर को पीड़ा पहुंचाने में उद्यमशील होता हुआ पाप का संचय करता है तथा स्त्रीवेद, नपुंसक वेद एवं नीचगोत्र का दुरुत्तर बन्ध करता है ।।९६६॥
भुज्यते यदनिच्छन्ती, क्लिश्यमानाङ्गनावशा।
तदेतस्या: पुरातन्याः परदार-रते फलम् ॥९६७ ॥ अर्थ - इस जन्म में जो स्त्री परवश होकर अनिच्छित (जिसे वह नहीं चाहती) पर-पुरुष के द्वारा बलात् किन्तु यथेच्छ भोगी जाती है और मानसिक महान् कष्ट पाती है, वह सब उसके पूर्व जन्म में किये गये परस्त्रीगमन का फल है।।९६७॥
योषा-वेषधरः कर्म-कुर्वाणो न यदश्नुते । काङ्कितं शर्म तत्तस्य, परदार-रते: फलम् ॥९६८॥