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मरणकण्डिका - २८२
शीतमुष्णं क्षुधां तृष्णां, दुराहारं पथि श्रमम् ।
दुःशय्यां सहते कामी, बहते भारमुल्वणम् ।।९४९ ।। अर्थ - सुकुमार भी कामान्ध पुरुष शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा, खोटा आहार, खोटी शय्या, मार्ग में चलने का श्रम और भारी बोझ ढोने वाले सब कष्टों को सहज सहन कर लेता है ।।९४९ ॥
क्षुप्यते कृष्यते लूयते पूयते, प्राप्यते पाद्यते सीव्यते चित्र्यते। छिद्यते भिद्यते क्रीयते दीर्यते, ख्यम्यते रज्यते सज्यते कामिना ।।९५० ।।
अर्थ - कामान्ध पुरुष इष्ट स्त्री को प्रसन्न रखने के लिए कभी खेदखिन्न होता है, खेती करता है, खेती कारता है, खलिहान साफ करता है, धान्यादि प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता है, वस्त्रों की सिलाई करता है, चित्रकारी करता है, लकड़, जाति को छोइनार्य cli , १५ आदि मदने अर्थात् फोड़ने का कार्य करता है, खरीदता है, काष्ठादि का विदारण करता है, छीलता है, वस्त्रादि को रंगता है एवं बुनता है। स्त्री के निमित्त मनुष्य इस प्रकार के कार्य करता है ।।९५० ।।
गो-महिषी-हय-रासभ-रक्षी, काष्ठ-तृणोदक-गोमयवाही। प्रेषण-कण्डण-मार्जनकारी, कामनरेन्द्र-वशोस्ति मनुष्यः ।।९५१ ।।
अर्थ - कामरूपी राजा के आधीन हुआ मनुष्य गाय, भैंस, घोड़े एवं गधों की रक्षा करता है, लकड़ी, तृण, जल एवं गोबर आदि होता है, स्वामी द्वारा भेजे जाने रूप प्रेषण कार्य करता है तथा मूसल से कूटने एवं झाडू से गृहादि साफ करने के नीच कार्य भी करता है।।९५१ ।।
आयुधैर्विविधैः कीर्णा, रणक्षोणी विगाहते।
लेखनं कुरुते दीनः, पुस्तकानामनारतम्॥९५२॥ अर्थ - कामार्त मनुष्य विविध आयुधों से युक्त रणभूमि में प्रवेश करके युद्ध करता है और स्त्री-प्रामि की अभिलाषा से पुस्तक-लेखन आदि के कार्य भी करता है ।।९५२॥
संयुक्तां कर्षति क्षोणी, गर्भिणीमिव योषितम् ।
अधीत्य बहुशः शास्त्रं, कुरुते शिशु-पाठनम् ।।९५३ ॥ अर्थ - गर्भिणी स्त्री सदृश संयुक्त भूमि में हलादि चलाता है तो बहुत शास्त्रों को पढ़कर भी आजीविका हेतु बालकों को पढ़ाने लगता है।९५३ ।।
शिल्पानि बहु-भेदानि, तनुते पर-तुष्टये।
विधते वञ्चनां चित्रा, वाणिज्य-करणोधतः ॥९५४॥ अर्थ - स्त्री-अभिलाषीं दूसरों को सन्तुष्ट करने के लिए नाना प्रकार की चित्रकला करता है एवं विविध प्रकार की वंचना अर्थात् ठगाई करता हुआ व्यापार में उद्यत रहता है ।।९५४ ।।
अवमन्य भवाम्भोधौ, पतनं बहुवीचिके। किं किं करोति नो कर्म, मर्यो मदनलपितः ।।९५५।।