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भरणकण्डिका - २७९
अर्थ - पिशाच द्वारा पकड़े हुए मनुष्य के सदृश जिसका मन व्याकल है, तथा जो विवेकरहित कर दिया गया है ऐसा कामासक्त अधम पुरुष हित और अहित को नहीं जान पाता है ।।९३४ ॥
नोपकारं कुलीनोऽपि, कृतघ्न इव मन्यते।
लज्जालुरपि निर्लजो, जायते मदनातुरः ॥९३५ ॥ अर्थ - कामी पुरुष कुलीन होने पर भी कृतघ्न मनुष्य के सदृश अपने उपकारी का भी उपकार नहीं मारता तथा लज्जावान् होते हुए भी काम से निर्लज्ज हो जाता है ।।९३५ ।।
स्तेनो वा जागरूकेभ्यः, संयतेभ्यः प्रकुप्यति ।
हितोपदेशिनं कामी, द्विषन्तमिव पश्यति ।।९३६ ।। अर्थ - जैसे चोर जागते हुए व्यक्तियों पर रोष करता है, वैसे ही कामी पुरुष संयमीजनों पर रोष करता है और वह कामी हितकारी बात कहने वालों को शत्रु सदृश देखता है ।।९३६।।
सूर्योपाध्याय-सङ्घानां, जायते प्रतिकूलिकः ।
धार्मिकत्वं परित्यज्य, प्रेर्यमाणो मनोभुवा ।।९३७॥ अर्थ - कामोद्रेक से प्रेरित हुआ साधु भी धार्मिक भाव को अर्थात् व्रताचरण को छोड़ कर आचार्य, उपाध्याय एवं चतुर्विध संघ के प्रतिकूल हो जाता है।९३७ ।।
माहात्म्यं भुवन-ख्याति, श्रुतलाभं च मुञ्चति ।
सतृणावज़या सारं, मोहाच्छादित-चेतनः ॥९३८ ॥ अर्थ - काम रूपी मोह से जिसकी चेतना आच्छादित हो गई है ऐसा साधु तीनों लोकों से पूजित अपने व्रतों के माहात्म्य को और तीनों लोकों के सारभूत श्रुतज्ञान के लाभ को तृण की अवज्ञा सदृश अवज्ञा करके छोड़ देता है ।।९३८ ।।
जीर्णं तृणमिव मुख्यं, चतुरङ्ग विमुञ्चतः।।
नाकृत्यं विद्यते किंचिजिघृक्षोर्विषयामिषम् ।।९३९ ।। अर्थ - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप ये चारों आराधनाएँ मोक्षमार्ग में प्रधान हैं। कामी साधु इन्हें भी जीर्ण-शीर्ण तिनके सदृश छोड़ देता है। ठीक ही है, विषयरूपी मांस के लोभी को अकृत्य कुछभी नहीं है। अर्थात् वह सब अनर्थ कर सकता है।।९३९ ।।
गृह्णात्यवर्णवादं यः, पूज्यानां परमेष्ठिनाम् ।
अकृत्यं कुर्वतस्तस्य, मर्यादा कामिनः कुतः ॥९४० ।। अर्थ - जो कामी साधु परम पूज्य पंचपरमेष्ठियों का भी अवर्णवाद करता रहता है उसे अन्य अकार्य करते हुए मर्यादा कहाँ से होगी ? वह सब मर्यादाओं को भंग कर सकता है।।९४० ।।
स दुःखमयशोन), कल्मषं द्रविण-क्षयम्। संसारसागरेऽनन्ते, भ्रमणं च न मन्यते ॥९४१ ।।