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मरणकण्डिका - २७४
अर्थ - जो पुरुष पर-धन को मिट्टी सदृश देखता हुआ छोड़ देता है वह अन्य के पास न पाई जाने वाली असाधारण विभूति से भूषित होता हुआ सम्भापों को सांत् कर्मों को ना परतः हुमायुक्ति प्राप्त कर लेता है ।।९०८॥
इति अचौर्यवर्णन समाप्त |
चतुर्थ ब्रह्मचर्य व्रत कथन अब्रह्म दशधा त्यक्त्वा, रामा-वैराग्य-पञ्चके।
निवेश्य मानसं पाहि ब्रह्मचर्यमनारतम॥९०९॥ अर्थ - हे क्षपक ! तुम दस प्रकार के अब्रह्म का त्याग कर और पाँच प्रकार के स्त्री सम्बन्धी वैराग्य में मन को तल्लीन कर सतत ब्रह्मचर्य व्रत में रत रहते हुए उसकी रक्षा करो।।९०९।।
ब्रह्मचर्य का लक्षण निरस्ताङ्गाङ्ग-रागस्य, स्वदेहेऽपि विरागिणः।
जीवे ब्रह्मणि या चर्या, ब्रह्मचर्यं तदीर्यते ।।९१० ॥ अर्थ - अपने शरीर के और स्त्री के शरीर के राग को जिसने छोड़ दिया है, ऐसे वैरागी मुनि के अपने आत्मारूप ब्रह्म में जो चर्या होती है उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं ।।९१० ।।
गद्य द्वारा दस प्रकार का अब्रह्म स्त्रीरूपाद्यभिलाष-वस्तिमोक्षण, वृष्याहारसेवन-तत्संसक्त-द्रव्यानुराग-तद्वराङ्गनिरीक्षण-सत्कारसंस्कारादरतातीत-रति-स्मरणानागताभिलषणेष्ट-विषय-निवेषण-स्वरूपं दशविधमब्रह्म-मन्तव्यम् ।।९११ ॥
अर्थ - दस प्रकार के अब्रह्म और उनके लक्षण -
१. स्त्रीरूपाघभिलाषा - स्त्रियों के रूप, उनके अधर का रस, उनके मुख की गन्ध, उनका मनोहर गायन, हास, मधुर वचन और कोमल स्पर्श की अभिलाषा करना।
२. वस्ति-मोक्षण - लिंग में विकार होना, या लिंग विकार को दूर न करना, या उस विकार का दृढ़ एवं स्थिर होना।
३. वृष्याहार सेवन - इन्द्रिय मदकारक, या शरीर में बल एवं वीर्य की वृद्धि हो ऐसे गरिष्ठ आहार का या रसों का सेवन करना।
४. तत्संसक्त द्रव्यानुराग - स्त्रियों के शरीर के स्पर्श सदृश ही अनुराग उनसे सम्बद्ध वस्तुओं के स्पर्श से होता है, अत: स्त्रियों से सम्बद्ध शय्या एवं आसनादि का सेवन करना।
५. तद्वरांग-निरीक्षण - स्त्री-शरीर के उत्तम अंगों का निरीक्षण करना। ६. सत्कार - उनके शरीर में अनुराग होने से उनका सत्कार करना ।
७. संस्कारादर - वस्त्रादि से उनके शरीर को संस्कारित करने में आदर भाव होना, या वस्त्र-अलंकार आदि से संस्कारित स्त्रियों के प्रति आकृष्ट हो उनका आदर करना। .