________________
मरणकण्डिका - २५८
अर्थ - जो दूसरों का घात करने में तत्पर रहते हैं उनसे मनुष्य वैसे ही डरते हैं जैसे राक्षस से । उस हिंसक पर उसके सम्बन्धी जन भी विश्वास नहीं करते ॥ ८३० ॥
इह बन्धं वधं रोधं, यातनां देश - धाटनम् ।
हिंस्रो वैरमभोग्यत्वं, लब्ध्वा गच्छति दुर्गतिम् ॥। ८३१ ।।
अर्थ - जीवों की हिंसा करने वाला इसी जन्म में बन्धन, वध, कारागृह, शारीरिक एवं मानसिक यातनाएँ, देश-निष्कासन, वैर और जातिच्युत आदि दण्ड भोगकर अन्त में दुर्गति को प्राप्त होता है ।।८३१ ।। यतो रुष्टः परं हत्वा कालेन म्रियते स्वयम् ।
हत इन्त्रोस्ततो नास्ति, विशेषस्तं क्षणं बिना ।।८३२ ।।
अर्थ - क्रोधित होकर जो मनुष्य दूसरों को मारता है, समय आ जाने पर वह स्वयं किसी एक दिन मरण को प्राप्त हो जाता है, अतः मारने वाले और मरने वाले में काल के अतिरिक्त अन्य कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् जिसे मारा वह पहले मरा और मारने वाला पीछे मरा, और कुछ नहीं ॥ ८३२ ।।
अल्पायुदुर्बलो रोगी, विरूपों विकलेन्द्रियः ।
दुष्टगन्ध-रस - स्पर्शो, जायतेऽमुत्र हिंसकः ||८३३ ॥
अर्थ - हिंसक प्राणी जन्मान्तर में अल्पायु, दुर्बल, रोगी, विरूप, विकल-इन्द्रिय, दुर्गन्धयुक्त, बुरे रस और कर्कश स्पर्श वाला होता है || ८३३ ॥
-
एकोऽपि हन्यते येन, शरीरी - भव- कोटिषु ।
म्रियते मार्यमाणोऽङ्गी, विधानैर्विविधैरसौ ||८३४ ॥
अर्थ- जो प्राणी एक भी जीव को मारता है, वह करोड़ों जन्मों में परवश होकर अनेक प्रकार से मारा जाकर मरता है || ८३४ ||
दुर्ग
यानि दुःखानि दुःसहानि शरीरिणाम् ।
हिंसा - फलानि सर्वाणि, कथ्यन्ते तानि सूरिभिः ||८३५ ॥
अर्थ संसारी प्राणियों को दुर्गतियों में जो-जो दुःसह दुख भोगने पड़ते हैं वे सब हिंसा के ही कटु फल हैं, ऐसा आचार्यों ने कहा है ||८३५ ॥
हिंसा का लक्षण
हिंसातोऽविरतिहिंसा, यदि वा वध-चिन्तनम् ।
यतः प्रमत्ततायोगस्ततः प्राण-वियोजकः ॥ ८३६ ॥
अर्थ - हिंसा से विरत न होना ही हिंसा है। अर्थात् "मैं प्राणियों का घात नहीं करूँगा " ऐसा संकल्प न करना हिंसा है। अथवा "मैं मारूँ" ऐसा चिन्तन करना हिंसा है, क्योंकि अविरति आदि प्रमत्तयोग ही प्राणों का वियोगज अर्थात् घातक है ||८३६ ॥