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मरणकण्डिका - २५७
वैसे ही अहिंसा व्रत के बिना सब शील नहीं ठहरते। जैसे धान्य की रक्षा हेतु बाड़ होती है, वैसे ही अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए शीलव्रतों का पालन है।।८२२-८२३ ।।
व्रत शीलं तपो दानं, नैन्थ्यं नियमो गुणः।
सर्वे निरर्थकाः सन्ति, कुर्वतो जीव-हिंसनम् ॥८२४ ॥ अर्थ - जीवहिंसा में तत्पर मनुष्य के व्रत, शील, तप, दान, मुनिपद, नियम एवं गुण, ये सभी निरर्थक हैं अर्थात् मुक्ति के उपायभूत संवर-निर्जरा रूप फल नहीं देते ॥८२४ ।।
आश्रमाणां मतो गर्भः, शास्त्राणां हृदयं परम्।
पिण्डं नियम-शीलानां, समतानामहिंसनम् ॥८२५।। अर्थ - सब आश्रमों का गर्भ, सब शास्त्रों का हृदय तथा नियम, शील और समता का पिण्ड यह अहिंसा ही है ।।८२५॥
असूनृतादिभिर्दुःखं, जीवानां जायते यतः।
परिहारस्ततस्तेषां, अहिंसाया गुणोऽखिलः ॥८२६॥ अर्थ - असत्य, चोरी, मैथुन एवं परिग्रह आदि पापों से जीवों को दुख होता है, अतः उन सबका त्याग किया जाता है। पापों के त्याग से जो सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह आदि गुण हैं वे अहिंसा के ही गुण हैं ॥८२६ ।।
गो-स्त्री-ब्राह्मण-बालानां, धर्मो यद्यस्त्यहिंसनम् ।
न तदा परमो धर्मः, सर्व-जीवदया कथम् ॥८२७ ।। अर्थ - यदि गौ, स्त्री, ब्राह्मण एवं बालकों के वध मात्र से निवृत्ति उत्कृष्ट धर्म है तब सब प्राणियों पर दया करना परम धर्म क्यों नहीं है? अवश्यमेव है ।।८२७ ।।
सर्वैः सर्वे समं प्राप्ताः, सम्बन्धा जन्तुभिर्यतः।
सम्बन्धिनो निहन्यन्ते, ततस्तान्निघ्नता ध्रुषम् ।।८२८॥ अर्थ - सब जीवों के साथ सब जीवों के सब प्रकार के सम्बन्ध पूर्व भवों में रह चुके हैं, तब उन जीवों को मारने वाला नियमतः अपने सम्बन्धियों को ही मारता है, ऐसा सिद्ध होता है॥८२८ ॥
आत्मघातोऽङ्गिनां घातो, दया तस्यात्मनो दया।
विषकाण्ड इव त्याज्या, हिंसातो दुःख-भीरुणा ॥८२९ ।। अर्थ - जीवों का घात अपना ही घात है और जीवों पर की गई दया अपने पर ही की गई दया है, अत: हिंसा सम्बन्धी दुखों से भयभीत मनुष्यों को विषैले काँटे के सदृश हिंसा करना छोड़ देना चाहिए ॥८२९॥
उद्वेगं कुरुते हिंस्रो, जीवानां राक्षसो यथा। सम्बन्धिनोऽपि नो तस्य, विश्वासं जातु कुर्वते ॥८३०॥
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