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मरणकाण्डका - २५९
प्रश्न - प्रमाद कितने और कौन-कौन से होते हैं ? तथा हिंसा का क्या लक्षण है ?
उत्तर - चार विकथा, चार कषाय, पंच इन्द्रियों की आधीनता, निद्रा और स्नेह, ये पन्द्रह प्रकार के प्रमाद हैं। ये पन्द्रह प्रकार के प्रमाद अपने भाव प्राणों के और दूसरों के द्रव्य प्राण एवं भावप्राणों के घातक होते हैं अत: इन्हें भी हिंसा कहा है।
. अथवा रागी, द्वेषी एवं मुढात्माएँ जो-जो कार्य करती हैं वह सब हिंसा है, वहाँ प्राणियों के प्राणों का घात हो भी और न भी हो। कारण कि प्रमाद परिणत आत्मा ही स्वयं हिंसा है और अप्रमत्तात्मा अहिंसक है।
हिंसा सम्बन्धी क्रियाओं के भेद द्वैषिकी कायिकी प्राणघातिकी पारितापिकी।
क्रियाधिकरणी चेति, पञ्च हिंसा-प्रसाधिकाः ॥८३७ ॥ अर्थ - इष्ट स्त्री एवं धन-हरण आदि के निमित्त उत्पन्न होने वाला क्रोध प्रद्वेष है। इस द्वेषयुक्त क्रिया को द्वेषिकी क्रिया कहते हैं। दुष्टता पूर्वक शरीर की क्रिया करना कायिकी क्रिया है, प्राणघातक क्रिया प्राणघातिकी क्रिया है, पर को सन्ताप देने वाली क्रिया पारितापिकी क्रिया है और हिंसा के उपकरणों का लेन-देन करना क्रियाधिकरिणी क्रिया है। ये पाँचों क्रियाएँ हिंसा-प्रसाधिका हैं ।।८३७ ।।
हिंसा त्रिभिश्चतुर्भिश्च, पञ्चभिः साधयन्ति ताः ।
क्रिया बन्धः समानेन, द्वैषिकी कायिकी क्रिये ।।८३८॥ अर्थ - द्वैषिकी आदि पाँचों क्रियाएँ मन, वचन और काय, इन तीर योगों द्वारा, क्रोधादि चार कषायों द्वारा और स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों द्वारा हिंसा को साध लेती हैं या सिद्ध करा लेती हैं। यदि द्वैषिकी एवं कायिकी
आदि क्रियाएँ मनुष्य एक सदृश परिणामों से करता है तो इस हिंसा से होने वाला कर्मबन्ध समान होता है और क्रियाओं की प्रक्रियाएँ एवं परिणाम असमान होने पर कर्मबन्ध भी असमान होता है अर्थात् तीव्र, मध्यम या मन्दरूप परिणामों से तीव्र, मध्यम या मन्द बन्ध होता है ।।८३८॥
अधिकरण के भेद प्रभेद जीवाजीव-विकल्पेन, तत्राधिकरणं द्विधा ।
शतमष्टोत्तरं पूर्व, द्वितीयं च चतुर्विधम् ।।८३९ ।। अर्थ - हिंसा के अधिकरण दो हैं। एक जीवाधिकरण और दूसरा अजीवाधिकरण । उनमें जीवाधिकरण एक सौ आठ भेद वाला है और दूसरा अजीवाधिकरण चार प्रकार का है ।।८३९ ॥
प्रश्न - यहाँ अधिकरण में जीव और अजीव कहने का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर - केवल जीव द्रव्य हिंसा में सहायक नहीं होता, किन्तु जीव की पर्याय सहायक होती है अर्थात् जीव का हिंसादियुक्त परिणाम हिंसा का अभ्यन्तर कारण होता है, मात्र जीव द्रव्य नहीं।
इसी प्रकार अजीव शब्द से अजीव द्रव्य की वह पर्याय ग्रहण करना जो हिंसा में सहयोगी हो रही है, इसीलिए हिंसात्मक क्रियाएँ क्वचित्-कदाचित् होती हैं, सदा काल नहीं। अजीव द्रव्य तो सदा विद्यमान रहता