________________
मरणकण्डिका - २६२
को बाधा हो। जैसे शीत स्पर्श वाली पुस्तक या कमण्डलु आदि को धूप से तप्त पीछी द्वारा संमार्जन कर लेना उपधि संयोगाधिकरण है।
निसर्गाधिकरण - मन, वचन और काय की दुष्टता पूर्वक की हुई प्रवृत्ति को निसर्गाधिकरण कहते
अहिंसा की रक्षा के उपाय नास्तीन्द्रिय-सुखं किञ्चिज्जीव-हिंसां विना यतः।
निरपेक्षस्ततस्तस्मिन्नहिंसां पाति पावनीम् ॥८४५॥ अर्थ - यत: छह काय के जीवों की हिंसा के बिना इन्द्रियजन्य सुख की प्राप्ति नहीं होती। नाना प्रकार के स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला एवं हार आदि का सेवन जीवों को पीड़ादायक ही होता है क्योंकि इनकी प्राप्ति बहुत आरम्भपूर्वक होती है। अतः जो इन्द्रियसुख की अपेक्षा नहीं करता, अर्थात् उस सुख से एकदम निरपेक्ष है वही साधु पवित्र अहिंसा का पालन कर सकता है, इन्द्रिय-सुखाभिलाषी नहीं ।।८४५ ।।
कषाय-कलुषो यस्माज्जीवानां कुरुते वधम्।
निःकषायो यतिस्तस्मादहिंसा-रक्षण-क्षमः ॥८४६ ॥ अर्थ - जिस प्रकार कषाय से कलुषित चित्त वाला व्यक्ति जीवों का वध करता है, उसी प्रकार ऋषायरहित मुनि अहिंसा के पालने में समर्थ माना जाता है ।।८४६ ।।
शयनासन-निक्षेप-ग्रह-चङ्क्रमणादिषु।।
सर्वत्राप्यप्रमत्तस्य, जीव-त्राणं व्रतं यतेः ।।८४७।। अर्थ - शयन, आसन, उपकरणों को रखने, उठाने, ग्रहण करने, उठने एवं चलने आदि में जो दयालु साधु सर्वत्र यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है वह अहिंसक होता है ।।८४७ ।।
विवेक-नियताचार-प्रासुकाहार-सेविनि।
मनोवाक्कायगुप्तेऽस्ति, दयावतमखण्डितम् ॥८४८ ॥ अर्थ - जो मुनि विवेकपूर्वक आचरण करता है, प्रासुक आहार का सेवन करता है तथा काय को वश में रखता है उस मुनिराज में दयाव्रत अखण्डित माना जाता है ।।८४८ ॥
आरम्भेऽङ्गि-वधे-जन्तुरप्रासुक-निषेवणे।
प्रवर्ततेऽनुमोदे च, शश्वज्ज्ञान-रतिं विना ।।८४९।। अर्थ - जिस जीव की ज्ञान में सतत रति नहीं होती, वह आरम्भ में, प्राणी-वध में, अप्रासुक आहार में स्वयं प्रवृत्ति करता है एवं इनमें प्रवृत्त होने वाले जीवों की अनुमोदना करता है ।।८४९ ।।
मुनिनानिच्छत्ता लोके, दुःखानि धृतये सदा। उपयोगो विधातव्यो, जीवनाण-व्रते परः ।।८५०।।