________________
मरणकण्डिका - २५२
का वचन भी राजा जैसे महापुरुष की आपत्ति को दूर करने में निमित्त बन गया तब जिनागम का अभ्यास करने से क्या-क्या अभिलषित पूर्ण न होगा ? अवश्य पूर्ण होगा ।
दृढसूर्योऽथ शूलस्थो, जातो देवो महर्द्धिकः ।
नमस्कार - श्रुताभ्यासं कुर्वाणो भक्तितो मृतः ॥ ८०६ ।।
अर्थ - शूली पर चढ़ाया हुआ दृढ़सूर्य नामक चोर भक्तिपूर्वक पंचनमस्कार मात्र श्रुतज्ञान में चित्त की एकाग्रता करके मरण को प्राप्त हुआ और स्वर्ग में महाऋद्धिशाली देव हुआ ||८०६ ।।
* दृदसूर्य चोर की कथा
सूर्य नाम और यह एक दिन
प्रेमिका वेश्याके कहने से राज्यमें चोरी करने गया। वह सीधा राजमहल पहुँचा। भाग्यसे हार उसके हाथ पड़ गया। वह उसे लिये हुए राजमहलसे निकला। उसके निकलते ही पहरेदारोंने पकड़ लिया। सवेरा होते ही वह राजसभामें पहुँचाया गया। राजाने उसे शूलीकी आज्ञा
| वह शूली पर चढ़ाया गया। इसी समय धनदत्त नामके एक सेठ दर्शन करनेको जिनमन्दिर जा रहे थे । दृढ़सूर्यने उनके चेहरे और चालढालसे उन्हें दयालु समझकर उनसे कहा-सेठजी, आप बड़े जिनभक्त और दयावान् हैं, इसलिये आपसे प्रार्थना है कि मैं इस समय बड़ा प्यासा हूँ, सो आप कहींसे थोड़ासा जल लाकर मुझे पिलादें तो आपका बड़ा उपकार हो ।
परोपकारी धनदत्त स्वर्ग- मोक्षका सुख देनेवाला पंच नमस्कार मंत्र उसे सिखाकर आप जल लेनेको चला गया । वह जल लेकर वापिस लौटा, इतने में दृढ़सूर्य मर गया। पर वह मरा नमस्कार मंत्रका ध्यान करते हुए। उसे सेट के इस कहने पर पूर्ण विश्वास हो गया था कि यह विद्या महाफलको देनेवाली है। नमस्कार मंत्र के प्रभाव से वह सौधर्म-स्वर्गमें जाकर देव हुआ । सच है पंच नमस्कार मंत्रके प्रभावसे मनुष्यको क्या प्राप्त नहीं होता!
-
मृत्युकाले श्रुतस्कन्धः, समस्तो द्वादशाङ्गकः ।
बलिना शक्ति-चित्तेन, यतो ध्यातुं न शक्यते ॥ ८०७ ॥
अर्थ
श्रुतस्कन्ध का अनुचिन्तन करने में समर्थ नहीं हो सकता ||८०१७ ||
मृत्यु के समय बलवान अर्थात् सामर्थ्य सम्पन्न चित्त वाला मनुष्य भी समस्त द्वादशांग
प्रश्न
क्या बहुश्रुतज्ञानी मुनि भी सम्पूर्ण श्रुत का ध्यान नहीं कर सकते ?
उत्तर - किसी भी काल और किसी भी क्षेत्र में सम्पूर्ण द्वादशांग श्रुतज्ञान ध्यान का विषय नहीं होता, फिर मरण समय में तो समस्त श्रुतज्ञान ध्यान का विषय बन ही नहीं सकता, भले द्वादशांग के पाठी कितने ही बलशाली मुनि क्यों न हों।
एकत्रापि पदे यत्र, संवेगं जिन भाषिते ।
संयतो भजते तन्न त्यजनीयं ततस्तदा ॥८०८ ॥
अर्थ - जिनेन्द्रोपदिष्ट आगम के जिस एक पद के चिन्तन से आत्मा में रत्नत्रय की श्रद्धा दृढ़ हो, क्षपक