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मरणकण्डिका - २५०
करते हुए इस मन के कारण संसार में अनन्त दुख भोगने पड़ते हैं, अत: आचार्य उपदेश देते हैं कि हे क्षपक! यदि तुम आराधना की सिद्धि करना चाहते हो तो इस मन-मर्कट को ज्ञानाभ्यास में लगा कर वश में करो।
शुद्धलेश्यस्य यस्यान्ते, दीप्यते ज्ञान-दीपिका।
तस्य नाश-भयं नास्ति, मोक्षमार्गे जिनोदिते ॥८००॥ अर्थ - जिस विशुद्धलेश्या वाले के हृदय में ज्ञान रूपी दीपक प्रज्ज्वलित रहता है, उसको जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग में यह भय कदापि नहीं रहता कि “मैं संसार-भँवर में गिर कर नष्ट हो जाऊँगा'' |८०० ।।
प्रश्न - इस श्लोक में आचार्यदेव क्या कह रहे हैं ?
उत्तर - जिस राहगीर के हाथ में प्रज्ज्वलित दीपक है, उसको अंधेरे मार्ग में कहीं गिरना-पड़ना, चोट आदि लगना, विपरीत दिशा में भटक जाना एवं यत्र-तत्र भ्रमित हो जाने का प्रसंग नहीं आता। उसी प्रकार जिनागम का सतत अभ्यास करने वाल, लेण्या से विशद्ध हृदय क्षपक के भी विपरीत श्रद्धा होना, तत्त्वों में शंका होना, चारित्र मलिन हो जाना एवं भावनाओं की साधना से स्खलित हो जाना आदि मार्ग से च्युत करने वाले बाधक कारणों का प्रसंग नहीं आता, अत: आचार्यदेव कहते हैं कि ज्ञानाभ्यासी क्षपक सदा निर्भय होकर साधना करता है।
ज्ञानरूपी प्रकाश का माहात्म्य ज्ञानोद्योतो महोद्योतो, व्याघातो नास्य विद्यते।
क्षेत्रं द्योतयते सूर्यः, स्वल्पं सर्वमसौ पुनः ।।८०१।। अर्थ - सूर्य का प्रकाश तेजस्वी होने पर भी स्वल्प अर्थात् सीमित क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है, किन्तु ज्ञान सर्वक्षेत्र अर्थात् लोकालोक को प्रकाशित करता है अर्थात् जानता है, अत: ज्ञान का प्रकाश ही महाप्रकाश है। इस प्रकाश का कभी व्याघात नहीं होता ।।८०१ ॥
ज्ञानं प्रकाशकं वृत्तं, गोपकं साधकं तपः ।
त्रयाणां कथिता योगे, निर्वृतिर्जिनशासने । १८०२ । अर्थ - ज्ञान प्रकाशक है, चारित्र रक्षक अर्थात् गुप्तिकारक है और तप साधक है। इन तीनों का योग मिलने पर ही जिनागम में मोक्ष कहा गया है ।।८०२ ।।
प्रश्न - प्रकाशक, गोपक और साधक का स्पष्ट भाव क्या है ?
उत्तर - वस्तु को दिखाने में जो सहायक होता है वह प्रकाशक कहलाता है, जो आपत्ति आदि के समय रक्षा करता है वह गोपक कहलाता है और जो कार्यसिद्धि का साधन करता है वह साधक कहलाता है। ज्ञान संसार और संसार के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारण एवं हेय-उपादेय तत्त्वों को साक्षात् दिखाता है अतः प्रकाशक है; चारित्र गुप्तिकारक है, वह भी पापों से एवं शुभाशुभ भावों से आत्मा की रक्षा करता है अतः गोपक है तथा तप निर्जरा का कारण होने से कर्मों का नाश कर मोक्षपद देता है अतः साधक है। इन तीनों के संयोग से स्वात्म-सिद्धि होती है।