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मरणकाण्डा
- २३५
मिथ्यात्व-वमनं दृष्टि-भावनां भक्तिमुत्तमाम्।
रति भाव-नमस्कारे, ज्ञानाभ्यासे कुरूद्यमम् ।।७५४ ।। अर्थ - हे क्षपकराज ! तुम मिथ्यात्व का वमन करो, तत्त्वश्रद्धामरूप सम्यक्त्व की भावना करो, पंच परमेष्ठियों की उत्तम भक्ति करो, परिणाम शुद्धिरूप भाव नमस्कार में मन लगाओ और ज्ञानाभ्यास में उद्यम करो अर्थात् श्रुतज्ञान के चिन्तन में तल्लीन रहो।।७५४ ।।
प्रश्न - नमस्कार कितने प्रकार का है और उनके लक्षण क्या हैं ?
उत्तर - द्रव्य और भाव के भेद से नमस्कार दो प्रकार का है। जिनेन्द्रदेव को, द्वादशांग मात को, पूज्य गुरुदेव को नमस्कार हो, इत्यादि शब्दों का उच्चारण करना, मस्तक झुकाना, चरण स्पर्श करना और दोनों हाथ जोड़कर अंजुलि पर मस्तक रखकर झुकाना यह सब द्रव्य नमस्कार है, और नमस्कार करने योग्य अर्हन्तादि के गुणों में अनुराग होना भाव नमस्कार है।
प्रश्न - त्रिधाहार त्यागी क्षीणकाय क्षफ्क सूत्ररूप से कहे हुए मिथ्यात्व वमनादिरूप महत्त्वपूर्ण उपदेश को कैसे ग्रहण कर सकेगा ?
उत्तर - क्षपक को विस्ताररूप से समझाने हेतु आचार्यदेव स्वयं श्लोक ७५६ से ७६५ तक मिथ्यात्व वमन का, श्लोक ७६७ से ७७६ तक सम्यत्व भावना का, ७७७ से ७८५ तक भक्ति का, ७८६ से ७९२ तक नमस्कार का और ७९३ से ८०९ तक ज्ञानाभ्यास का उपदेश आगे दे रहे हैं।
मुने ! महाव्रतं रक्ष, कुरु कोपादि-निग्रहम् ।
हृषीक-निर्जयं द्वेधा, तपो मार्गे कुरूद्यमम् ॥७५५॥ अर्थ - हे मुने ! पंच महाव्रतों की रक्षा करो, क्रोधादि कषायों का उत्कृष्ट रीत्या निग्रह करो, दुर्दान्त इन्द्रियों पर विजय को और बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकार के तप मार्ग में उद्यम करो ।।७५५ ॥
प्रश्न - क्षपक को महाव्रतादि का रक्षण कैसे करना चाहिए ?
उत्तर - आचार्यश्री आगे श्लोक ८०९ से १४२२ तक महाव्रतों के रक्षण का, १४२३ से १५१९ तक कषायनिग्रह एवं इन्द्रियविजय का एवं श्लोक १५१०से १५४५ तक तप में उद्यम करने का उपदेश स्वयं दे रहे
मिथ्यात्व-बमन का उपदेश भवद्रुम-महामूलं, मिथ्यात्वं मुञ्च सर्वथा।
मोहते सगुणां बुद्धिं, मद्येनेव मुने ! लघु।।७५६ ।। ____ अर्थ - हे क्षपक ! मिथ्यात्व ही संसाररूपी महावृक्ष का मूल है अतः इसका सर्वथा त्याग करो । क्योंकि जैसे मनुष्य की बुद्धि को मद्य मोहित कर देती है, वैसे ही गुण युक्त बुद्धि को मिथ्यात्व मोहित कर देता है।।७५६।।