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मरणकण्डिका -२४०
उत्तर - सम्यग्दृष्टि मनुष्य एवं तिर्यंच केवल देवगति में और सम्यग्दृष्टि देव एवं नारकी मात्र मनुष्य गति में ही जन्म लेते हैं, अत: मात्र चारित्रभ्रष्ट जीव का संसार पतन अर्थात् चतुर्गति-भ्रमण नहीं होता किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव का सम्यक्त्व छूट जाने पर वह जीव अर्धपुद्गल परिवर्तन काल पर्यन्त संसार-भ्रमण कर सकता है अत: उसका संसार में पतन होना कहा गया है।
भार-माद, प्रेमरागानुरञ्जिताः।
जैने सन्ति मते सेषां, न किञ्चिद्वस्तु दुर्लभम् ।।७७१ ।। अर्थ - धर्मानुराग, भावानुराग, मज्जानुराग और प्रेमानुराग, इन रागों में जो रंजायमान हैं, उन्हें इस जैनमत में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है॥७७१ ॥
प्रश्न - अनुराग तो हेय है फिर उसे यहाँ श्रेष्ठ क्यों कहा गया है ?
उत्तर - इस जगत् में लोग पर-पदार्थों में जो अनुसग या स्नेह करते हैं उसे हेय कहा गया है। किन्तु सम्यग्दृष्टि जीवों में प्रारम्भ में सम्यक्त्व सहित जो अनुराग होता है, उसे श्रेष्ठ कहा गया है। जैसे काँटा ही काँटा निकालने का साधन है, वैसे सम्यक्त्वयुक्त अनुराग ही राग की जड़ काटने का साधकतम कारण है। इसमें सम्यक्त्व का ही माहात्म्य है। आचार्यदेव क्षपक को सम्यक्त्व का यही माहात्म्य समझा रहे हैं।
प्रश्न - इन अनुरागों के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - रत्नत्रय धर्म में दृढ़रुचि, प्रतीति या अनुराग होना धर्मानुराग है।
*धर्मानुराग की कथा * उज्जैन के राजा धनवर्मा और रानी धनश्री के लकुच नाम का एक पुत्र था। वह बड़ा अभिमानी और शूरवीर योद्धा था।
एक बार कालमेघ म्लेच्छ ने धनवर्मा के राज्य पर चढ़ाई कर दी जिससे धनवर्मा राजा को जन-धन की बहुत बड़ी हानि उठानी पड़ी। म्लेच्छ राजा से बदला लेने हेतु उस लकुच ने म्लेच्छों की सेना पर चढ़ाई कर दी और विजयलक्ष्मी प्राप्त की। धनवर्मा पुत्र की वीरता देख अति प्रसन्न हुए। उन्होंने लकुच को कोई वर माँगने की प्रेरणा की। पुत्र की इच्छानुसार उसे राजा ने स्व इच्छानुसार कार्य करने की आज्ञा प्रदान कर दी। ऐसी आज्ञा प्राप्त होते ही लकुच निरंकुश होकर धर्मभ्रष्ट हो गया और सीमातीत भ्रष्टाचार करने लगा।
उसी नगर में पुंगल नाम का एक सेठ रहता था। उसकी नागदत्ता नाम की सुन्दर स्त्री थी। पापी लकुच ने उसका शीलभंग कर दिया। पुंगल उसकी नीचता देख जल उठा, और उससे बदला लेने की प्रतीक्षा करने लगा।
एक दिन लकुच वनक्रीड़ा को जा रहा था । मार्ग में उसे एक मुनिराज के दर्शन हुए। उनका धर्मोपदेश सुन कर लकुच को वैराग्य हो गया। दीक्षाधारण कर वे मुनि ध्यानमग्न हो गये। पुंगल इसी अवसर की खोज में था । वह तत्काल लोहे के बड़े-बड़े कीले लाया और मुनि के शरीर में ठोककर चला गया। लकुच मुनिराज ने इस दुःसह उपसर्ग को बड़ी शान्ति, स्थिरता और धर्मानुराग से सहन कर स्वर्ग की लक्ष्मी को प्राप्त किया।