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मरणकण्डिका - २४३
क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया। उसी समय ३३ सागर की नरक आयु कट कर मात्र चौरासी हजार वर्ष की रह गई। राजा श्रेणिक ने गणधर देव से साठ हजार प्रश्न कर अपनी तत्त्व सम्बन्धी जिज्ञासाएँ शान्त कीं और परमात्य पद के कारणभूत तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध किया । अष्टाङ्ग सम्यक्त्व रत्नों से अलंकृत राजा श्रेणिक आगामी काल में इसी भरत क्षेत्र में महापद्म नाम के प्रथम तीर्थंकर होंगे।
इस प्रकार सम्यक्त्व के प्रभाव से राजा श्रेणिक ने अपने अनन्त संसार परिभ्रमण का नाश कर मुक्ति को सन्निकट कर लिया।
सम्यक्त्व रत्न की अमूल्यता
अच्छिन्ना लभ्यते येन, कल्याणानां परम्परा ।
मूल्यं सम्यक्त्व - रत्नस्य, न लोके तस्य विद्यते ।। ७७३ ।।
अर्थ - जिस सम्यक्त्व के द्वारा जीव को अभ्युदयादि सुखों की अविच्छिन्न कल्याण- परम्परा प्राप्त होती है, लोक में उस सम्यक्त्व रत्न का कोई मूल्य नहीं है। वह तो अमूल्य है ।। ७७३ ।।
प्रश्न- सम्यग्दर्शन धाराप्रवाह रूप से कल्याण- परम्परा कैसे देता है ?
उत्तर - सम्यग्दृष्टि जीव नियमतः देवों एवं मनुष्यों में ही जन्म लेता है। देवों में भी वह इन्द्र, प्रतीन्द्र, अहमिन्द्र, लौकान्तिक एवं सामानिकादि उत्तम देवों में ही उत्पन्न होता है। भवनत्रिक, आभियोग्य एवं किल्विषादि ही देवों में कदापि जन्म नहीं लेता। मनुष्यों में चक्रवर्ती, बलदेव, कामदेव, महामण्डलीक और मंडलीक आदि श्रेष्ठ मनुष्यों में ही जन्म लेता है। दरिद्री, नीचकुली, विकलांग, कुरूप और शक्तिहीनादि मनुष्यों में कदापि जन्म नहीं लेता। इस प्रकार के कुछ भव ग्रहण कर वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। अतः यह कहा गया है कि सम्यग्दर्शन धाराप्रवाहरूप से कल्याण- परम्परा को देता है।
सम्यक्त्वस्य च यो लाभस्त्रैलोकस्य च यस्तयोः ।
सम्यक्त्वस्य मतो लाभ:, प्रकृष्टः सार-वेदिभिः ॥ ७७४ ॥
त्रैलोक्यमुपलभ्यापि ततः पतति निश्चितम् । अक्षयां लभते लक्ष्मीमुपलभ्य सुदर्शनम् ॥ ७७५ ॥
अर्थ - सम्यक्त्व का लाभ और त्रैलोक्य का लाभ, ये दो लाभ हैं। इन दोनों में सम्यक्त्व का लाभ सर्वश्रेष्ठ है, उत्कृष्ट है ऐसा सारभूत रत्नत्रय के ज्ञाता गणधरादि देवों द्वारा कहा गया है, क्योंकि तीन लोक को • प्राप्त करके भी कुछ काल व्यतीत हो जाने पर वे नियमतः छूट जाते हैं, किन्तु सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाने से यह जीव नियमतः अविनाशी मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है । ७७४-७७५ ॥
ददाति सौख्यं विधुनोति दुःखं, भवं सुनीते नयते विमुक्तिम् ।
निहन्ति निन्दां कुरुते सपर्या, सम्यक्त्वरत्नं विदधाति किं न ||७७६ ।।
इति सम्यक्त्वं ।