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मरणकण्डका
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ही निश्चल ध्यान में तल्लीन रहे। सेठ की ऐसी अलौकिक स्थिरता देखकर देव बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा सेठ को साँकरी नाम की एक आकाशगामिनी विद्या भेंट कर वह स्वर्ग चला गया। सेठ का धर्म के प्रति ऐसा प्रेमानुराग देखकर कितने ही श्रावकों ने मुनिव्रत, कितनों ने श्रावकव्रत, कितनों ने सम्यक्त्व और कितनों ने उसी समय जैनधर्म धारण कर लिया ।
मज्जानुराग - पाँचों पाण्डव जन्म से ही परस्पर में ऐसे अनुराग से बद्ध थे, जैसे हड्डी मज्जा से बद्ध रहती है। धर्म, धर्मा एवं धर्मात्माओं में श्रद्धा का इसी प्रकार निबद्ध रहना मज्जानुराग है।
ये सब अनुराग जैनधर्म से संबद्ध होने के कारण उपयोगी है। इन अनुरागों से अनुरक्त भव्य जीवों को कुछ भी दुर्लभ नहीं है। उन्हें सर्वत्र सर्व वस्तुएँ सुलभता से प्राप्त हो जाती हैं।
सम्यक्त्व का माहात्म्य
श्रेणिको व्रत-हीनोsपि, निर्मली - कृत - दर्शन: ।
आहत्य - पदमासाद्य, सिद्धि-सौधं गमिष्यति ।।७७२ ॥
अर्थ- देखो ! सम्यक्त्व का माहात्म्य, अतिचारों से रहित निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले राजा श्रेणिक व्रतों से हीन होते हुए भी आर्हन्त्य पद की कारणभूत तीर्थकर प्रकृति को प्राप्त कर आगे सिद्धि भवन अर्थात् मोक्ष प्राप्त करेंगे || ७७२ ॥
* राजा श्रेणिक की कथा *
राजा श्रेणिक मगध देश के अधीश्वर थे। मगध की राजधानी राजगृही नगरी में रहते थे। उनकी पटरानी चेलना थी। वह बड़ी धर्मात्मा, जिनेन्द्र की भक्त और सम्यग्दर्शन से विभूषित थी। राजा पूर्व में बौद्ध धर्मावलम्बी था अतः राजा श्रेणिक से रानी चेलना का धर्म के विषय में सदा विवाद चलता रहता था। एक बार वन विहार को जाते हुए राजा ने आतापन योग में तल्लीन यशोधर मुनिराज को देखा। उन्हें शिकार के लिए विघ्नरूप समझकर क्रोधित होते हुए उन पर क्रूर स्वभावी शिकारी कुत्ते छोड़ दिये। कुत्ते मुनि का घात करने हेतु निर्दयता पूर्वक उनके ऊपर झपटे, किन्तु मुनिराज की तपश्चर्या के प्रभाव से उन्हें कुछ कष्ट न पहुँचा सके। अपितु उनकी प्रदक्षिणा देकर उनके समीप खड़े हो गये। यह देख श्रेणिक ने क्रोधान्ध हो उन पर बाण चला दिये किन्तु तप प्रभाव से वे बाण फूलवर्षा सदृश हो गये। श्रेणिक ने उस समय मुनिघात के हिंसारूप तीव्र परिणामों से सातवें नरक का आयुबन्ध कर लिया जिसकी स्थिति तैंतीस सागर की है।
इन अलौकिक घटनाओं को देखकर राजा श्रेणिक का हृदय परिवर्तित हो गया। दुष्ट भाव नष्ट हो गये तथा मुनिराज के प्रति पूज्य भाव उत्पन्न हो गये। उन्होंने मुनिराज को नमस्कार किया और मुनिराज ने उन्हें अहिंसा-मयी पवित्र जिनशासन का उपदेश दिया। उस उपदेश का राजा के हृदय पर विलक्षण प्रभाव हुआ जिससे उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई।
विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर स्वामी का समवसरण आया। राजा श्रेणिक ने वहाँ जाकर भगवान जिनेन्द्र की पूजा, वन्दना एवं स्तुति की तथा दिव्यध्वनि सुनी। परिणामों की अत्यन्त विशुद्धता के कारण