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मरणकण्डिका - २४४
अर्थ - यह सम्यक्त्वरत्न सुख देता है, दुख को नष्ट करता है। संसार को काटता है, मोक्ष में ले जाता है। अपयश को नष्ट करता है, यश को प्राप्त कराता है। सम्यक्त्व क्या नहीं करता ? सब कुछ करता है ॥७७६ ॥ सम्यक्त्व भावना पूर्ण हुई । पराभक्ति का व्याख्यान
भक्तिमर्हत्सु सिद्धेषु चैत्येष्वाचार्य - साधुषु ।
विधेहि परमां साधो !, निश्चय-स्थित- मानसः ।।७७७ ।।
अर्थ - हे क्षपक ! अपना मन निश्चित और स्थिर करके तुम अर्हन्तों में, सिद्धों में, जिनप्रतिमाओं में, आचार्यों और साधुओं में उत्कृष्ट भक्ति करो || ७७७ ॥
जिनेन्द्रभक्तिरेकापि, निषेद्धुं दुर्गतिं क्षमा ।
आसिद्धि - लब्धितो दातुं, सारां सौख्य-परम्पराम् ॥७७८ ॥
अर्थ - अकेली जिनभक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है और माकप्राप्ति होने तक इन्द्रपद, अहमिन्द्र पद, चक्रवर्ती पद और तीर्थंकर पद आदि सारभूत अभ्युदय सुख- परम्परा को देने वाली है ।। ७७८ ॥ सिद्ध-चैत्य - श्रुताचार्य - सर्वसाधु-गता परा ।
विच्छिनत्ति भवं भक्तिः, कुठारीव महीरुहम् ।।७७९ ।।
अर्थ- सिद्ध परमेष्ठी, जिन प्रतिमा, जिनागम एवं सर्व साधुओं में की गयी श्रेष्ठ भक्ति उसी प्रकार संसार का नाश कर देती है जैसे कुल्हाड़ी वृक्ष को नष्ट कर देती है ।। ७७९ ।।
नेह सिध्यति विद्यापि सफला न हि जायते ।
किं पुनर्निर्वृतेर्बीजं, भक्तिहीनस्य सिध्यति ।। ७८० ||
अर्थ - भक्तिहीन मनुष्यों को विद्या भी सिद्ध नहीं होती, जो पहले की प्राप्त की हुई विद्या है वह भी भक्तिहीन पुरुषों को फलदायक नहीं होती तो फिर मोक्ष के बीज स्वरूप रत्नत्रय क्या भक्तिहीन को सिद्ध हो सकता है ? नहीं हो सकता ॥ ७८० ॥
भक्तिमाराधनेशानां योऽकुर्वाणस्तपस्यति ।
स पत्यूष शालीन-नालोच्य समं ध्रुवम् ॥ ७८१ ।।
अर्थ - जो मनुष्य सम्यग्दर्शनादि आराधनाओं के स्वामी अर्हन्तादि की भक्ति नहीं करता, उसका तपश्चरण नियमतः ऊषर भूमि में बोये हुए शालि धान्य के सदृश निष्फल है । ७८१ ॥
हे बीजेन विना सस्यं, वारिदेन विना जलम् ।
काङ्क्षन्ति ये विना भक्तिं, काङ्क्षन्त्याराधनां नराः ॥ ७८२ ॥
अर्थ - जो मनुष्य जिनेन्द्र आदि की भक्ति किये बिना ही आराधना अर्थात् रत्नत्रय की सिद्धि चाहते हैं वे बीज के बिना धान्य और बादलों के बिना जल चाहते हैं ||७८२ ।।