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मरणकण्डिका - २३४
अनुशिष्टि-महाधिकार
३३. अनुशिष्टि अधिकार क्षीणकाय एवं क्षीणशक्ति क्षपक के प्रति निर्यापकाचार्य का उपदेश निर्यापको गणी शिक्षा, संस्तर-स्थाय यच्छति ।
कुवन-संवेग-निर्वदा, कर्णे अपमथानिशम् ॥७५१ ।। अर्थ - निर्यापकाचार्य संस्तरारूढ़ क्षपक को आगमानुसार शिक्षा-उपदेश देते हैं। उस शिक्षा द्वारा क्षपक को संसार से भय और वैराग्य उत्पन्न करा कर पश्चात् उसके कान में सतत जाप सुनाते हैं ।।७५१॥
अनुशिष्टं न चेदत्ते, क्षपकाय गणाग्रणीः।
त्यजेदाराधनादेवीं, तदानीं सिद्धि संफलीम् ।।७५२ ।। अर्थ - यदि निर्यापकाचार्य क्षपक को उपदेश न देंगे तो वह क्षपक मोक्षफल देने वाली आराधना देवी को छोड़ देगा अर्थात् शिक्षा के अभाव में क्षपक समाधि से च्युत हो जायेगा ।।७५२ ।।
शोधयित्वोपधिं शय्या, वैयावृत्य-करानपि।
निःशल्पीभूय सर्वत्र, साधो ! सल्लेखनां कुरु ।।७५३॥ अर्थ - हे क्षपक ! निःशल्य होकर तथा वैयावृत्त्य करने वालों का, वसतिका एवं संस्तर का तथा पीछी आदि उपधि का शोधन करके अब सल्लेखना करो ॥७५३ ।।
प्रश्न - निःशल्य बनने का क्या उपाय है, वैयावृत्य का क्या लक्षण है तथा वैयावृत्य करने वालों का और वसतिका आदि का शोधन कैसे करना चाहिए ?
उत्तर - मिथ्या, माया और निदान, ये तीन शल्य हैं। इनमें से तत्त्वार्थ- श्रद्धान द्वारा मिथ्या शल्य को, सरलता द्वारा माया शल्य को तथा भोगों की निस्पृहता द्वारा निदान शल्य को दूर करके निःशल्य हो जाना चाहिए। मिथ्याज्ञान, असंयम, परीषह, उपसर्ग और व्याधि आदि के भेद से नाना प्रकार की आपदाओं को विपदा कहते हैं। उस विपदा के आने पर उसके प्रतिकार करने को वैयावृत्य कहते हैं। जो इस प्रकार से क्षपक की वैयावत्य करते हैं वे वैयावत्य करने वाले कहलाते हैं। इनके शोधन हेत क्षपक यह देखे कि वैयावत्य करने वाले मुनिगण संयम और असंयम को जानते हैं या नहीं? वे मन-वचन-काय से असंयम का परिहार करते हैं या नहीं ? यह परीक्षा करके अयोग्य को हटा कर योग्य को रखना, यही वैयावृत्य करने वालों का शोधन है। पूर्वाह्न एवं अपराह्न में वसति, संस्तर एवं उपकरणों का शोधन करो। ऐसी आज्ञा देने को उपधि शुद्धि कहते
आचार्यदेव क्षपक को कहते हैं कि आप इस प्रकार की शुद्धि करो। अब आपका मरण निकट है।