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मरणकण्डिका- २३२
३१. श्रामण- अधिकार क्षपक द्वारा सर्व संघ से क्षमायाचना
आचार्येऽध्यापके शिष्ये, स साधर्मिके कुले । योऽपराधो भवेत्त्रेधा, सर्वं क्षमयते स तम् ॥७४१ ॥
अर्थ - त्रिधा आहार त्याग के बाद आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मी, कुल एवं गण के प्रति जो - जो अपराध तथा कषायभाव हुए हैं उनकी वह क्षपक मन, वचन और काय से क्षमायाचना करता है || ७४१ ।। मूर्धन्यस्त-कराम्भोजो, रोमाञ्चाञ्चित विग्रहः । त्रिधा क्षमयते सर्व, संवेग जनयन्नसौ ॥७४२ ॥
अर्थ- दोनों हाथों की अंजुलि मस्तक पर रखी है जिसने ऐसा रोमांचयुक्त एवं संवेगभाव को प्रगट करता हुआ क्षपक सर्व संघ से मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक क्षमायाचना करता है ।। ७४२ ||
प्रश्न- क्षपक का शरीर रोमांचित क्यों हो जाता है ?
उत्तर - "मुमुक्षु के जो-जो कर्तव्य होते हैं वे सब मैं कर चुका हूँ" इन विचारों से क्षपक का चित्त अत्यन्त आह्लादित हो रहा है, अतः धर्मानुराग की प्रगटता से अर्थात् हर्ष से शरीर रोमांचित हो जाता है। योsपराधो मयाकारि, मनसा वपुषा गिरा ।
क्षमये तमहं सर्वं निःशल्पीभूत मानसः ।।७४३ ॥
अर्थ
हुए हैं उन सब अपराधों की मैं निःशल्य होकर क्षमा माँगता हूँ || ७४३ ॥
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क्षपक संघ से कहता है कि भो मुनिगण! मेरे द्वारा मन, वचन और काय से जो भी अपराध
मम पितृ - जननी - सदृशः शश्वस्त्रिभुवन महितः सुयशाः सङ्घः । प्रिय-हित- जनकः परमां क्षान्तिं रचयत - कृतवानहमक्षान्तिम् ॥७४४ ॥
इति क्षामणा ।
अर्थ - अहो ! यह संघ मेरे माता-पिता तुल्य है, सदा ही त्रिभुवन में पूज्य है, यशस्वी है तथा प्रिय एवं हित को उत्पन्न करने वाला है, ऐसे आप सभी की मैंने शान्ति भंग की है। मैं सर्व संघ से क्षमायाचना करता हूँ, सर्व संघ मुझे क्षमा प्रदान करे। मैं भी आप सबके अपराधों को भूल गया हूँ। इस प्रकार क्षपक द्वारा महान् विशुद्धि को करने वाली क्षमायाचना की जाती है ॥ ७४४ ॥
इस प्रकार क्षामण अधिकार समाप्त हुआ ।। ३१ ।।
३२. क्षपण अधिकार
क्षपक और परिचारकों की कर्मनिर्जरा
क्षयत्वेति वैराग्यमेष स्पृशन्ननुत्तमम् । तपः समाधिमारूढश्चेष्टते क्षपयन्त्रघम् ॥७४५ ।।