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मरणकण्डिका - २३१
उत्तर
तीन प्रकार के आहार त्याग के बाद क्षपक सकल संघ से क्षमा माँगना चाहता है किन्तु क्षीणकाय होने से सबके समीप जा नहीं सकता अतः संघ को क्षपक के क्षमाभाव की प्रतीति कराने हेतु आचार्य उसकी पीछी ब्रह्मचारी के हाथ में देकर सर्व संघ की वसतिकाओं में दिखा कर कहते हैं कि यह क्षपक त्रिकरण शुद्धिपूर्वक आप सबसे क्षमा माँगता है।
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संघ का करणीय कर्त्तव्य
आराधनास्य निर्विघ्ना, सम्यक् सम्पद्यतामिति । स याति सकल: संघस्तनूत्सर्गमसंभ्रमम् ॥७३७ ॥
अर्थ - इस क्षपक की आराधना समीचीनरूप से सम्पन्न हो, कोई विघ्न न आवे, इस भावना से सकल संघ शान्तिपूर्वक कायोत्सर्ग करता है || ७३७ ॥
चतुर्विध अहार-त्याग की विविधता
तं चतुर्विधमाहारमाचार्यो विधि - कोविदः ।
मध्ये सर्वस्य संघस्य, स प्रत्याख्यानयेत्ततः ॥ ७३८ ॥
अर्थ - क्षपक की क्षमायाचना के बाद सर्वविधि में कुशल आचार्य सर्वसंघ के मध्य में उस क्षपक को चारों प्रकार के आहार का त्याग कराते हैं ॥७३८ ॥
त्रिविधं वा परित्याज्यं, पानं देयं समाधये ।
अवसाने पुनः पानं, त्याजनीयं पटीयसा ।।७३९ ॥
अर्थ - अथवा चित्त की एकाग्रता के लिए पहले तीन प्रकार के आहार का त्याग कराना चाहिए और पेयाहार देना चाहिए | कुशल आचार्य को अन्त अवस्था में पेयाहार का भी त्याग करा देना चाहिए ।।७३९ ।। प्रश्न- पूर्व गाथा में चतुर्विध आहार त्याग की बात कह कर इस गाथा में तीन प्रकार के आहार का त्याग कर पेयाहार देने का आदेश (अथवा कह कर ) क्यों दिया गया है ?
उत्तर - पूर्व गाथा में चतुर्विधाहार-त र-त्याग की बात उस क्षपक की दृष्टि से कही गयी है जो कठिन परीषह की बाधा को सहन करने में समर्थ है। जो इसमें समर्थ नहीं है उसे पेयाहार देना चाहिए और अन्त में उस पेय का त्याग कराना चाहिए। ऐसा इस गाथा का अभिप्राय है ।
पानकाहार शान्ति रूपी रत्न देने में समर्थ है
यनिर्दिष्टं पानकर्माधिकारे, दातुं शक्तं तत्समाधान - रत्नम् ।
षोढा पानं युज्यते तस्य पातुं, त्रेधाहारं त्यागकाले पवित्रम् ॥७४० ॥
इति प्रत्याख्यानम् ।।
अर्थ - पानक क्रिया अधिकार में जो छह प्रकार का पानक कहा गया है वह क्षपक द्वारा तीन प्रकार 'का आहार त्याग कर देने के बाद पिलाना चाहिए, क्योंकि वह पवित्र पानक क्षपक की व्याकुलता को दूर करके उसे शान्ति रूपी रत्न देने में समर्थ होता है।७४० ॥
प्रत्याख्यान नामक अधिकार समाप्त ॥ ३० ॥