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मरणकण्डिका - २२९
अर्थ- समाधि के इच्छुक एवं सरस आहार की गृद्धता से युक्त उस क्षपक के सकल आहार में से एक-एक आहार का त्याग कराते हुए वे आचार्य उसे क्रमशः प्रकृत आहार में धीरे-धीरे स्थापित कर देते हैं ।।७२९ ।।
प्रश्न- " प्रकृत आहार में स्थापित कर देते हैं" इसका क्या अभिप्राय है?
उत्तर- इसी ग्रन्थ की गाथा २५५-२५६ में कहा गया है कि भक्त प्रत्याख्यान सल्लेखना का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष है। इन बारह वर्षों में से प्रथम चार वर्ष कायक्लेश तप करे, पश्चात् चार वर्षों में दूधादि रसों का त्याग को इस वर्ष और निर्विकृति आहार करे, पश्चात् एक वर्ष मात्र आचाम्ल आहार करे, छह माह मध्यम तप करे और अन्तिम के छह मासों में उत्कृष्ट तप करे। इस विधानानुसार उसका सरस एवं मिष्टाहार तो कई वर्ष पूर्व छूट चुका था । यहाँ तीन प्रकार का आहार त्याग कराना है, वह क्षपक कई वर्षों से निर्विकृत और आचाम्ल आहार कर रहा था। उसकी किसी आहार विशेष में गृद्धता या बांछा न रह जावे, इस हेतु से उसे सरस और मिष्टाहार दिखाया गया था। गृद्धता उत्पन्न हो जाने पर उसे वह आहार करा कर सन्तुष्ट किया गया | पश्चात् शनैः-शनैः क्रमशः एक-एक वस्तु का त्याग कराते हुए मिष्टाहार प्रदर्शन के पूर्व वह क्षपक जो आचाम्लादि आहार ले रहा था अन्त में वहीं आ जाता है। प्रकृताहार में स्थापन करने की आगमसम्मत यही प्रक्रिया है । इसके पश्चात् तीनों प्रकार के आहार का त्याग कराया जाता है।
क्रमेण वैराग्य-विधी नियुक्तो, निरस्य सर्वं क्षपकस्ततोऽन्नम् ।
आराधना-ध्यान-विधान दक्षैः, स पानकैर्भावयते श्रुतोक्तौ ।।७३० ॥
इति हानिः ॥
अर्थ पुन: वैराग्यविधि में स्थापित किया गया क्षपक क्रमश: सब प्रकार के अन्नाहार का त्याग करता | आराधना तथा ध्यान के विषय में प्रवीण आचार्य उस क्षपक को शास्त्रोक्त पेय पदार्थों द्वारा भावित करते हैं। अर्थात् उस समय क्षपक सर्वान्न आहार का त्याग करने और मात्र पानकाहार करने में आपको उद्युक्त करता है । ७३० ॥
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इस प्रकार हानि नामक अधिकार पूर्ण हुआ ।। २९ ।।
३०. प्रत्याख्यान अधिकार पानक के भेट
लेपालेप-घन - स्वच्छ सिक्थासिक्थ विकल्पतः । पानकर्मोचितं पानं, षोढेदं कथितं जिनैः ॥७३१ ॥
अर्थ - लेप, अलेप, घन, सिक्थ, असिक्थ और स्वच्छ, इस प्रकार पानक आहार छह प्रकार का है। ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।।७३१ ॥
प्रश्न
इन छह प्रकार के पानकाहार के क्या लक्षण हैं ?