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मरणकण्डिका - २२७
आस्वाद्य कश्चिदेतेन, तीरं प्राप्तस्य किं मम।
इति वैराग्यमापन्नः, संवेगमवगाहते ।।७२३ ।। अर्थ - कोई क्षपक दिखाये गये आहार का स्वादमात्र लेकर “मरण को प्राप्त मुझे इस मनोज्ञ आहार से क्या"? ऐसे विचारों द्वारा विरक्त होकर संवेगतत्पर होता है। अर्थात् संसार से भयभीत हो जाता है ।।७२३ ।।
अशित्वा कश्चिदंशेन, तीरं प्राप्तस्य किं मम ।।
इति वैराग्यमापन्नः, संवेगमवगाहते ॥७२४॥ अर्थ - कोई क्षपक उक्त आहार को थोड़ा खाकर "मरण को प्राप्त होने वाले मुझे अब इस मनोज्ञ आहार से क्या प्रयोजन"? ऐसा विचार कर वैराग्य को प्राप्त होता हुआ संवेग का अवगाहन करता है॥७२४ ।।
बल्भित्वा सर्वमेतेन, तीरं प्राप्तस्य किं मम।
इति वैराग्यमापन्नः, संवेगमवगाहते ॥७२५ ।। अर्थ - कोई क्षपक उस मनोज्ञ आहार को पूर्णतया खाकर “मुझे अथवा मेरी इस आहार-वांछा को बार-बार धिक्कार है। मरण को प्राप्त होने वाले मुझे अब इस मनोज्ञ आहार से क्या प्रयोजन है" ऐसा विचार कर विरक्त हो संसार के भय से मुक्त होने में तत्पर होता है ।।७२५ ।।
वल्भित्वा सुन्दराहारं, रसास्वादन-लालसः । कश्चित्तमनुबध्नाति, सर्व देशं च गृद्धितः ।।७२६ ।।
इति प्रकाशनम्। अर्थ - कोई क्षपक मुनि उस सुन्दर और मिष्ट आहार को पूर्णरूप से खाकर भी तृप्त नहीं होते। रस के आस्वादन में आसक्त वे उक्त आहार को एकदेश या पूर्ण रूप से गृद्धता के कारण पुनःपुनः चाहते हैं। अर्थात् आहार की वांछा के कारण त्याग नहीं कर पाते ।।७२६ ।।
प्रश्न - यहाँ ये गाथाएँ क्यों कही गई हैं ?
उत्तर - यदि बार-बार सतत मनोज्ञ भोजन आदि का क्रम चलता रहे तो उससे मनुष्य की अभिलाषा वृद्धिंगत होती रहती है, जो भयंकर कर्मबन्ध का कारण है। इस कर्मबन्ध के कारण प्राणी संसार-समुद्र में पड़ेपड़े दुख भोगते रहते हैं। इस दुख से छूटने का अमोघ उपाय है समाधिमरण, और समाधिमरण की साधना के लिए कषायों के साथ-साथ आहार का त्याग अत्यावश्यक है। आहारत्याग अतिदुष्कर कार्य है इसीलिए इसे त्यागने की उत्कृष्ट अवधि बारह वर्ष कही गई है। बारह वर्ष के कठोर तपश्चरण के अभ्यास से क्षपक इस दुष्कर कार्य को सम्पन्न करने में सक्षम हो जाता है, फिर भी तीन प्रकार के आहारत्याग के पहले उसे मनोज्ञ आहार दिखाना आवश्यक है, इस आहार-प्रकाशन से क्षपक के परिणामों की यथार्थ परीक्षा हो जाती है। इसी परीक्षा की सिद्धि के लिए सम्भवतः ये गाथाएँ यहाँ प्रयोजनभूत हैं।
इस प्रकार प्रकाशन नाम का अधिकार समाप्त ॥२८॥