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परणकण्डिका - २२५
अर्थ - "क्षपक उत्तमार्थ समाधि का साधन कर रहे हैं" ऐसा सुन कर भी जो मुनिजन तीव्र भक्ति से उत्कण्ठित होते हुए, क्षपक के दर्शनार्थ नहीं आते उन जीवों की समाधिमरण में क्या भक्ति हो सकती है? ॥७१३ ।।
उत्तमार्थ-मृतौ यस्य, भक्तिर्नास्ति शरीरिणः ।
उत्तमार्थ-मृतिस्तस्य, मृतौ सम्पद्यते कुतः? ।।७१४।। अर्थ - जिस जीव की उत्तमार्थ मरण में भक्ति नहीं है, मरते समय उसका समाधिपूर्वक मरण कैसे हो सकता है? ||७१४॥
प्रश्न - समाधिपूर्वक मरण किसका होता है?
उत्तर - जो जीव सल्लेखना रत क्षपक की हृदय से वैयावृत्त्य करते हैं, उनके दर्शन करते हैं, हाथों से सेवा करते हैं, भक्तिपूर्वक उनकी वन्दना करते हैं और हर्षोल्लास पूर्वक अनुमोदना करते हैं, उनका मरण सल्लेखना पूर्वक ही होता है। किन्तु जो इसकी उपेक्षा करते हैं. उनका मरण साहिएतक नहीं होता है।
क्षपक के प्रति अन्य कर्तव्य तस्यासंवृत-वाक्यानां न पार्वे देयमासितुम् ।
वचनैरसमाधानं, तदीयैर्जायते यतः ॥७१५॥ अर्थ - वचनगुप्ति और भाषासमिति से रहित कलकल वचन, लोकविरुद्ध वचन और निरर्गल आदि - वचन बोलने वाले लोगों को क्षपक के समीप नहीं जाने देना चाहिए, क्योंकि मर्यादा रहित वचन सुनकर क्षीणकाय क्षपक को अशान्ति हो सकती है। अर्थात् उसकी समाधि में बाधा हो सकती है ।।७१५ ।।
गीतार्थैरपि नो कृत्या, स्त्री-सक्तार्थादिका कथा।
आलोचनादिकं कार्य, तत्राति-मधुराक्षरम् ॥७१६ ॥ अर्थ - आगमार्थ के ज्ञाता मुनियों को भी क्षपक के समीप स्त्रियों में आसक्ति की कारणभूत कुकथाएँ नहीं करनी चाहिए। आलोचनादि की धर्मवर्धक कथा अति मधुर वाणी से करनी चाहिए ।।७१६ ।।
क्षपक के लिए आचार्य ही प्रमाण है प्रत्याख्यानोपदेशादौ, सर्वत्रापि प्रयोजने।
क्षपकेण विधातव्यः, प्रमाणं सूरिराश्रितः ।।७१७॥ अर्थ - प्रत्याख्यान, उपदेश एवं प्रतिक्रमण आदि प्रयोजनभूत कार्यों में क्षपक को निर्यापकाचार्य ही प्रमाण होते हैं। अर्थात् उसे उनकी आज्ञानुसार ही समस्त कार्य करने चाहिए ||७१७ ।।
क्षपक को कुल्ले आदि कराना चाहिए तेन तैलादिना कार्या, गण्डूषा: सन्त्यनेकशः । जिह्वा-वदन-कर्णादे-नैर्मल्यं जायते ततः ॥७१८ ॥