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मरणकण्डिका -२२४
अर्थ - यदि एक ही निर्यापक है और वह आहारादि के लिए बाहर गया तो उसके अभाव में भूखादि की वेदना के वशीभूत हुआ क्षपक कुछ भी अयोग्य पदार्थों का सेवन कर लेगा। या अयोग्य कार्य कर बैठेगा। या मिश्यादृष्टिगों के पार लामर आहारपिकी याचना करेगा, इससे क्षपक की, निर्यापक की एवं धर्म की महान् अपकीर्ति होगी ।।७०७॥
यतोऽसमाधिना-मृत्युं, याति निर्यापकं विना।
क्षपको दुर्गति भीमा, दुःखदां लभते तत;॥७०८।। अर्थ - समीप में निर्यापक न होने से क्षपक समाधि के बिना मरण को प्राप्त होता है और उस असमाधिमरण से अशुभ ध्यानवश भयानक दुख देने वाली दुर्गति में चला जाता है ।।७०८ ।।
समाधि की सूचना प्राप्त होने पर अन्य साधुओं का कर्तव्य चतुर्विधस्य संघस्य, कश्चन प्रेषयेत्ततः । संन्यास-सूचकाचार्यो, निर्यापकगणेशिना ।।७०९॥ श्रुत्वा सल्लेखनां सर्वेरगन्तव्यं तपोधनैः ।
कारितां शुद्धवृत्तेन, भजनीयमतोन्यथा ॥७१०॥ अर्थ - क्षपक के समाधिमरण धारण करने की सूचना देने वाले कोई आचार्य चतुर्विध संघों में सूचना भेजते हैं, तब रत्नत्रय का निर्दोषरीत्या पालन करने वाले निर्यापकाचार्य द्वारा क्षपक की सल्लेखना हो रही है यह सुनकर सब यतियों को वहाँ आना चाहिए। किन्तु यदि निर्यापकाचार्य शिथिल चारित्र वाला है तो अन्य यतिजन क्षपक के निकट आवें अथवा न भी आवें, भजनीय है।।७०९-७१० ॥
भक्तिपूर्वक सल्लेखनारत क्षपक के दर्शन का फल एति सल्लेखना-मूलं, भक्तितो यो महामनाः ।
स नित्यमश्नुते स्थानं, भुक्त्वा भोग-परम्पराः ।।७११ ।। अर्थ - इस प्रकार जो महामना यति तीव्र भक्तिराग से सल्लेखना के स्थान पर आकर क्षपक के दर्शन करते हैं, वे स्वर्ग की भोग-परम्परा को भोग कर शाश्वत मोक्षस्थान को प्राप्त कर लेते हैं ॥७११ ।।
समाथि पूर्वक मरण करने का फल एकत्र जन्मनि प्राणी, म्रियते यः समाधिना ।
अकल्मषः स निर्वाणं, सप्ताष्टैर्लभते भवैः ।।७१२।। अर्थ - जो क्षपक एक भव में निर्दोष रीत्या समाधिमरण कर लेता है वह सात-आठ भवों में ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है ||७१२ ।।
समाधिमरण न देखने का फल यो नैति परया भक्त्या, श्रुत्वोत्तमार्थ-साधनम् । उत्तमार्थ-मृतौ तस्य, जन्तोर्भक्तिः कुतस्तनी ॥७१३॥