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मरणकण्डिका - २२३
एक निर्यापक से उत्पन्न होने वाले दोष आत्मा त्यक्तः परं शास्त्रं, एको निर्यापको यदि ।
असमाधेम॒तिर्व्यक्ते, यमसौ दुर्गति: परा।।७०३ ।। उरई . यदि एक लिपिक कोड है तो उन निर्यात स्वयं की आत्मा का, क्षपक का और प्रवचन का भी त्याग हो जाता है। क्षपक का भी असमाधि पूर्वक मरण होता है जिससे उसकी दुर्गति होती है ।।७०३ ।।
भिक्षाद्यविदधानेन, क्षपक-प्रतिकर्मणा ।
अनारतं प्रसक्तेन, स्वस्त्यक्तोऽन्यो विपर्ययः ।।७०४ ।। अर्थ - क्षपक का कार्य करते रहने से निर्यापक भिक्षाग्रहण, निद्रा एवं मल-मूत्र त्याग नहीं कर सकता अत: वह आत्मा का त्याग करता है, क्योंकि भोजनादि न कर पाने से निर्यापक को कष्ट होता है और यदि निर्यापक आहारादि के लिए जाता है या सोता है तो क्षपक की सेवा न हो पाने से उसका त्याग होता है ।।७०४॥
स्वस्यापरस्य वा त्यागे, यतिधर्मो निराकृतः।।
ततः प्रवचन-त्यागो, ज्ञान-विच्छेदको मतः ।।७०५॥ अर्थ - इस प्रकार निर्यापक का स्वयं का अथवा क्षपक का त्याग होने से मुनिधर्म का नाश होगा और मुनिधर्म के नाश से प्रवचन अर्थात् आगम का नाश होगा, क्योंकि मुनि के अभाव में शास्त्रों का उपदेश कौन देगा? और शास्त्रों को कण्ठाग्र कौन करेगा ? ॥७०५ ।।
प्रश्न - निर्यापक और क्षपक के अभाव में मुनिधर्म का नाश और मुनिधर्म के नाश से प्रवचन का नाश क्यों हो जावेगा ?
उत्तर - यतिजनों के दो धर्म प्रधान हैं। वैयावृत्त्य करना और षड़ावश्यकों का पालन करना । एक क्षपक के साथ यदि एक ही निर्यापक होता है तो यति के दोनों धर्मों का नाश हो जाता है, कारण कि यदि यति अपने षड़ावश्यकों का पालन करता है तो क्षपक की वैयावृत्त्य नहीं कर सकता और यदि वैयावृत्य करता है तो षड़ावश्यक नहीं कर सकता । तथा उपवास आदि हो जाने के कारण यदि निर्यापक का मरण हो जाता है तो नियमतः ज्ञान का भी व्युच्छेद हो जाता है।
क्षपकस्यात्मनो वास्ति, त्यागतो व्यसनं परम्।
भवेत्ततोऽसमाधानं, क्षपकस्यात्मनोऽपि वा ।।७०६ ।। अर्थ - क्षपक को त्यागने पर क्षपक को महाकष्ट होता है क्योंकि उसे कोई शान्ति देने वाला या प्रतिकार करने वाला नहीं होता । अथवा निर्यापक के निज के त्याग से निर्यापक को महाकष्ट होता है, क्योंकि आहारादि को न जा पाने से निर्यापक का चित्त व्याकुल हो जाता है। इस प्रकार दोनों की असमाधि होती है।।७०६॥
क्षुधादि-पीडितः शून्ये, सेवते याचते यतः। क्षपकः किञ्चनाकल्पं, दुर्मोचमयशस्ततः ॥७०७॥