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मरणकण्डिका - २२१
वह भोजन क्षपक मुनि की वसतिका में ले आते हैं एवं श्रावकों द्वारा ही क्षपक मुनि की आहारविधि सम्पन्न कराते हैं।
वर्तमानकाल में मुनिजन धर्मशाला या मन्दिर आदि में ही निवास करते हैं अतः सल्लेखनाविधि सम्पन्न करने में श्रावकोचित सर्व व्यवस्थाओं में श्रावकों का पूर्ण सहयोग प्राप्त हो जाता है अर्थात् क्षपकयोग्य आहार की व्यवस्था श्रावकजन वसतिका के समीप ही कर लेते हैं।
जो यति आहार लाते हैं वे मायावी नहीं होते। अयोग्य को योग्य नहीं कहते, आहार लाने में ग्लानि नहीं करते। उद्गमादि दोषों से रहित एवं इष्ट आहार लाते हैं। क्षपक भी लिप्सावश आहार नहीं करता, किन्तु भूख और प्यास परीषह को शान्त करने में समर्थ खान-पान की इच्छा करता है। वह आहार वात, पित्त और कफ शमन करने वाला होना चाहिए।
पानं नयन्ति चत्वारो, द्रव्यं तदुपकल्पितम्।
अप्रमत्ताः समाधानमिच्छन्तस्तस्य विश्रमाः ॥६९३ ॥ अर्थ - क्षपक की शान्ति के इच्छुक अप्रमत्त अर्थात् निरालस्य एवं श्रमरहित चार मुनिजन क्षपक के लिए प्रासुक, इष्ट और योग्य पानक की व्यवस्था करते हैं ॥६९३ ॥ ।
अन्य चार-चार मुनियों का कार्य विभाजन 'मलं क्षिपन्ति चत्वारो, वर्चः प्रसवणादिकम् ।
शय्या-संस्तरको काल-द्वये प्रतिलिखन्ति च ॥६९४ ।। अर्थ - चार मुनि क्षपक के मल, मूत्र, कफ आदि का क्षेपण करते हैं तथा दोनों सन्ध्याओं में वसति एवं संस्तर का भी शोधन करते हैं ।।६९४ ।।
क्षपकावसथ-द्वारं, चत्वारः पान्ति यत्नतः।
धर्मश्रुति-गृहद्वारं, चत्वार; पालयन्ति ते॥६९५॥ अर्थ - चार मुनि क्षपक के वसतिद्वार की रक्षा करते हैं और अन्य चार मुनि धर्मोपदेश-मण्डप के द्वार की रक्षा करते हैं ।।६९५ ।।
प्रश्न - वसतिद्वार एवं धर्मोपदेश मण्डप द्वार की रक्षा करने का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर - द्वार-रक्षण का यह अभिप्राय है कि क्षपक की आत्मशान्ति भंग करने वाले एवं धर्मोपदेश में विघ्न उत्पन्न करने वाले मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी तथा कुतर्कवादी जन वहाँ प्रवेश न कर सकें।
निशि-जाग्रति चत्वारो, जितनिद्रा-महोद्यमाः।
वार्ता मार्गन्ति चत्वारो, यत्नाद् देशादि गोचराम् ॥६९६ ।। अर्थ - निद्राविजय में उद्यमशील चार मुनि रात्रि में क्षपक के निकट जागरण करते हैं और चार चतुर मुनि निवासभूत देश की स्थिति एवं नगर में होने वाली शुभाशुभ वार्ता का निरीक्षण करते रहते हैं।।६९६॥