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मरणकण्डिका - २२०
अर्थ - विक्षेपणी कथा को छोड़कर वैयावृत्त्य करने वाले परिचारक मुनि अशुभ मन, वचन और काय को निर्मूल करने वाली तथा तीन गारवों को नष्ट करने वाली आक्षेपणी आदि तीन कथाएँ ही कहते हैं ।।६९० ।।
तपो-भाव-नियुक्तस्य, प्रत्यासन्न-मृतेर्यतेः ।
ते वदन्ति तथा तस्य, भवत्याराधको यथा ॥६९१ ।। अर्थ - मृत्यु के अतिनिकट होने में जो क्षपक श्रेष्ठ एवं उग तप भावना में तत्पर है उस क्षपक को वे परिचारक मुनि ऐसा धर्मोपदेश देते हैं जिससे वह रत्नत्रय का आराधक होता है।।६९१।।
चार मुनि क्षपक की आहार-चर्या में तत्पर रहते हैं तस्या नयन्ति चत्वारो, योग्यमाहारमश्रमाः।
निर्माना लब्धिसम्पन्नास्तदिष्टं गतदूषणम् ॥६९२॥ अर्थ - जो अश्रम, निर्मान एवं लब्धिसम्पन्न हैं, ऐसे चार मुनि उस क्षीणकाय क्षपक के लिए उद्गमादि दोषों से रहित एवं प्रकृति के अनुकूल इष्ट आहार लाते हैं ।।६९२ ।।
प्रश्न - आहार लाने में नियुक्त किये गये मुनियों के अश्रमादि विशेषण क्यों दिये गये हैं, ये कैसे और किस प्रकार का आहार लाते हैं ? ।
उत्तर - जो साधु आहार की व्यवस्था करने में श्रम का अनुभव नहीं करते अर्थात् जो कभी ऐसा नहीं सोचते कि 'हम भी तो थक जाते हैं, हम कब तक यह आहार की व्यवस्था करते रहेंगे ?' जो साधु ऐसे भावों से रहित होते हैं उन्हें अश्रम मुनि कहते हैं।
"आहार लाने जैसा कार्य हमें करना पड़ता है" जो ऐसे भावों से रहित होते हैं उन्हें निर्मान मुनि कहते
सान
जो मुनि मोहनीय और अन्तराय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम वाले होते हैं उन्हें लब्धिसम्पन्न साधु कहते हैं। इस गुण से सम्पन्न साधुओं को भिक्षा अवश्य और शीघ्र मिलती है किन्तु अलब्धिमान अर्थात् जिनके लाभान्तराय आदि कर्मों का तीव्रोदय होता है उन्हें प्राय: भिक्षा प्राप्त नहीं होती, अथवा इष्ट भिक्षा प्राप्त नहीं होती, वे खाली हाथ वापिस लौटते हैं, या अल्प या अनिष्ट भिक्षा लाते हैं तब क्षपक को कष्ट होता है। क्षपक को आहार से सम्बन्धित किसी प्रकार की अशान्ति न हो इसलिए आहार की व्यवस्था करने वाले मुनियों के अश्रम, निर्मान और लब्धिसम्पन्न विशेषण दिये गये हैं।
अयाचकवृत्ति वाले साधु आहार कैसे लाते होंगे? इसके समाधान में गुरुजनों के मुखारविन्द से ऐसा सुना है कि जब साधु जंगल में रहते थे, वहीं समाधिमरण-विधि सम्पन्न करते थे तब आहार लाने हेतु मुनिजनों को ही नियुक्त किया जाता था। क्षीणकाय क्षपक जब आहारार्थ दूर नहीं जा पाते तब लब्धिसम्पन्न व्यवस्थापक मुनि गुरु से स्वयं उपवास ग्रहण करते हैं, पश्चात् आहारार्थ चर्या को जाते हैं और विधिपूर्वक पड़गाहन आदि सर्व क्रियाएँ यथावत् सम्पन्न हो जाने के पश्चात् जब आहार की थाली सामने आ जाती है तथा शुद्धि बोल दी जाती है तब सिद्धभक्ति करने के अनन्तर वे स्वयं आहार ग्रहण नहीं करते और मौन छोड़ कर श्रावकों द्वारा