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मरणकण्डिका - २२८
अनाकुलमनुद्विग्नमव्याक्षेपमनुद्धतम् ।
अनर्थहीनमश्लिष्टमविचलितमद्रुतम् ।।६८२ ।। अर्थ - धर्मोपदेश करते समय ऐसे वचन बोलते हैं जिससे क्षपक मुनि को आकुलता उत्पन्न न हो, उद्वेग रहित हो, क्षोभरहित हो, उद्दण्डता रहित हो, वे ऐसी बात नहीं कहते जिसका कोई अर्थ न हो, जो कठिनता से रहित हो, वे बहुत जोर से या बहुत मन्द आवाज से भी नहीं बोलते हैं ।।६८२ ।।
प्रह्लादजनक पथ्यं, मधुरं हृदयङ्गमम्।
धर्म यानी चत्वारा, हृध-चित्रकयोधमा ६८ ।। अर्थ - जो वचन क्षपक को आनन्द उत्पन्न करने वाले हों, हितकर हों तथा मधुर एवं मनोहर हों ऐसे वचनों द्वारा अनेक-अनेक सुन्दर कथाएँ कहने में निपुण वे मुनि धर्मकथा सुनाते हैं ।।६८३ ।।
क्षपक को सुनाने योग्य कथाएँ क्षपकस्य कथा कथ्या, सा यां श्रुत्वा विमुञ्चते ।
सर्वथा विपरीणाम, याति संवेग-निर्विदौ ।।६८४ ।। अर्थ - क्षपक के समक्ष ऐसी कथा कहनी चाहिए जिसे सुनकर वह अशुभ परिणामों को छोड़ दे और संवेग अर्थात् संसार से भयभीत हो जावे और निर्वेग अर्थात् शरीर एवं भोगों से विरक्त हो जावे ॥६८४ ।।
भवत्याक्षेप-निर्वेग-निर्वेद-जनिकाः कथा:।
क्षपकस्योचितास्तिस्रो, विक्षेप-जनिका तु नो॥६८५ ।। अर्थ - आक्षेप, निर्वेग और निर्वेद जनिका ये तीन प्रकार की कथाएँ तो क्षपक के कहने और सुनने योग्य हैं, किन्तु विक्षेप जनिका कथा क्षपक के योग्य नहीं है ।।६८५ ॥
चारों कथाओं के लक्षण कथा साक्षेपणी ब्रूते, या विद्या-चरणादिकम्।
विक्षेपणी कथा वक्ति, परात्म-समयाँ पुनः ।।६८६ ।। अर्थ - जिसमें ज्ञान और चारित्र का उपदेश होता है उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं और जिसमें परसमय का खण्डन एवं स्वसमय का मण्डन हो उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं॥६८६ ।। .
संवेजनी कथा ब्रूते, ज्ञान-चारित्र-वैभवा।
निर्धेदनी कथा वक्ति, भोगाङ्गादेरसारताम् ॥६८७॥ अर्थ - ज्ञान, चारित्र और तपो भावना से उत्पन्न शक्ति-सम्पदा का कथन करने वाली संवेजनी कथा है और पञ्चेन्द्रियों के भोग एवं शरीर की नि:सारता का कथन करने वाली निर्वेदनी कथा है ।।६८७॥ ।
प्रश्न - ये चारों कौन सी कथाएँ हैं और इनका विशेष क्या है?
उत्तर - आक्षेपणी आदि ये चारों धर्मकथाएँ हैं। रत्नत्रय अर्थात् सम्यक्त्व का, मति-श्रुत आदि पाँचों सम्यक्ज्ञानों का तथा सामायिकादि चारित्रों का वर्णन करने वाली आक्षेपणी कथा है।