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मरणकण्डिका - २१६
अर्थ - इस प्रकार संस्तर प्रमाण से बना हो, अर्थात् न छोटा हो और न बड़ा हो, योग्य हो अर्थात् शास्त्रनिर्दिष्ट क्रम से बना हो एवं दोनों समय अर्थात् सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय प्रतिलेखना द्वारा शुद्ध या शोधन करने योग्य हो। ऐसे संस्तर पर अशुभ मन, वचन एवं काय का निरोध करके क्षपक को आरोहण करना चाहिए ||६७४॥
निर्यापके समर्प्य स्वं, समस्त-गुणशालिनी।
प्रवर्तते विधानेन, क्षपकः संस्तरे स्थितः ।।६७५॥ अर्थ - समस्त गुणों से सम्पन्न निर्यापकाचार्य पर अपने आप को समर्पित कर अर्थात् निर्यापकाचार्य को ही शरण मान कर संस्तरारूढ़ क्षपक सल्लेखना की विधि से विचरता है अर्थात् विधिपूर्वक प्रवृत्ति करता है।।६७५॥
तृण-क्षोणि-पाषाण-काष्ठ-प्रशस्ते, स्थितः संस्तरे धर्ममार्ग-प्रवीणः। धुनीते समस्तानि कर्माणि योगि, रणे योधवर्गो बलानीव धीरः॥६७६॥
__इति संस्तरः॥ अर्थ - जिस प्रकार रणांगण में धीर-वीर योद्धावर्ग सेना को नष्ट कर डालता है उसी प्रकार तृण, काष्ठ, पृथ्वी अथवा शिलामय प्रशस्त संस्तर पर आरूढ़ एवं धर्ममार्ग में प्रवीण होता हुआ वह क्षपक योगी समस्त कर्मों को नष्ट कर देता है।६७६ ॥
इस प्रकार संस्तर का विवेचन पूर्ण हुआ॥२६॥ इस प्रकार सुस्थितादि पाँचवाँ अधिकार पूर्ण हुआ॥५॥
निर्यापकादि अधिकार
२७. निर्यापक अधिकार गुणज्ञ निर्यापकों का चयन और उनका प्रमाण स्थेयांसः प्रियधर्माणः, संविग्ना पाप-भीरवः । ख्याताश्छन्दानुगमनाः, कल्पाकल्प-विचक्षणाः ।।६७७ ।। प्रत्याख्यान-विदो धीराः, समाधान-क्रियोद्यता।
षट्-ताडिताष्ट-संख्याना, ग्राह्या निर्यापकाः पराः॥६७८ ।। अर्थ - जो मुनिजन चारित्र में स्थिर हैं, जिन्हें धर्म प्रिय है, संसार से उदासीन अर्थात् भयभीत हैं, पाप