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मरणकण्डिका - २१३
सेवक, ग्राविक अर्थात् पत्थर का कार्य करने वाले, कोटपाल, कुम्हार, सुभट, वेश्या, जुआरी और बदमाश, ऐसे-ऐसे निःकृष्ट कार्य करने वाले लोगों के निवास के समीप बनी हुई वसतिका योग्य नहीं है, क्योंकि जो बुद्धिमान मुनिजन संसाररूपी वन का नाश करने में तत्पर है तथा जो सदा समाधान अर्थात ममतारूपी रत्न का पालन कर रहे हैं उनके द्वारा वह कदापि सेव्यमान नहीं है || ६६०-६६२ ॥
योग्य वसतिका का स्वरूप
पञ्चाक्ष-प्रसरो यस्यां विद्यते न कदाचन ।
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त्रिगुप्तो वसतौ तस्यां शुभध्यानोऽवतिष्ठते ॥ ६६३ ॥
अर्थ - जहाँ मन को संक्षोभ करनेवाला पाँचों इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों में कदाचित् भी गमन सम्भव नहीं है उस वसतिका में साधु क्षपक मन, वचन और काय को गुप्त करके शुभ ध्यान करते हुए
निवास
करते हैं । ६६३ ॥
अर्थ- जो वसतिका उद्गमादि दोषों से रहित हो, अपने उद्देश्य से निर्मित न हो, लिपाई-पुताई आदि संस्कार से रहित हो तथा सम्मूर्च्छन जीवों से रहित हो, उसमें साधु निवास करते हैं || ६६४ ||
चाहिए |
अर्थ - जहाँ मिथ्यादृष्टि जीवों को अगम्य हो, गृहस्थों के निवास से रहित हो और अन्धकार से रहित हो ऐसी दो अथवा तीन वसतिकाएँ क्षपक के लिए करने योग्य हैं ।। ६६५ ॥
वसतिका अन्धकार रहित क्यों होनी चाहिए और दो-तीन वसतिकाएँ भी क्यों ग्रहण करनी
प्रश्न
उद्गमादि-मलापोढा, सप्रकाशा गत क्रिया ।
संस्कार करणायोग्या, सम्मूर्च्छन- विवर्जिता ॥ ६६४ ॥
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मिथ्यादृष्टि - जनागम्या, गृहिशय्या - विवर्जिताः ।
द्वि-त्रा वसत्यो ग्राह्याः सेव्या विध्वस्त- तामसाः ।। ६६५ ।।
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उत्तर
अन्धकारमय वसतिका से संयम का घात होता है। एक वसतिका क्षपक के निवास हेतु और दूसरी अन्य मुनिजनों के विश्राम हेतु होनी चाहिए। यदि तीन वसतिका ग्रहण करते हैं तो एक में क्षपक, एक में अन्य मुनिजन और एक में धर्मोपदेश होता है।
निविडाः संवृत - द्वारा:, सुप्रवेश - विनिष्क्रमाः ।
सकवाटा लसत्कुड्या, बाल-वृद्ध जनोचिता ॥६६६ ॥
अर्थ- वसतिका मजबूत अर्थात् दृढ़ हो, द्वार से ढकी हुई हो, जिसमें बिना कष्ट के सुखपूर्वक प्रवेश और निर्गमन हो सकता हो, कवाट युक्त हो, दृढ़ दीवार वाली हो और बाल-वृद्ध लोगों के भी योग्य हो ||६६६ ॥
प्रश्न- वसतिका में कवाट होना आवश्यक क्यों है ?