________________
मरणकण्डिका - २११
को शुद्ध कर लेता है, उसी प्रकार आचार्य क्षपक के छोटे या बड़े अपराध को तथा क्रोधादि परिणामों की तीव्रता-मन्दता को जानकर तदनुरूप प्रायश्चित्त देकर उसे शुद्ध करते हैं।
दूसरों के परिणामों का अनुमान सहवास से हो जाता है कि यह तीव्र क्रोधी या तीव्र मानी है। अथवा उसके कार्यकलाप एवं भाषा आदि का व्यवहार देखकर उसके तीव्र या मन्द क्रोधादि परिणामों का अनुमान हो जाता है, अथवा जब तुमने दोष किये थे तब तुम्हारे परिणाम कैसे थे ? ऐसा तीन बार पूछने से भी अन्य के परिणामों का अनुमान हो जाता है।
उल्लाघी करुने तैयो तैाशास्त्र-विशारदः। यथातुरं कृताभ्यासो, रोगातङ्कादि-पीडितम् ।।६५४ ।। गणाधिपः कृताभ्यासो, व्यवहार-विचक्षणः ।
क्षपकं मलिनीभूतं, निर्मलं कुरुते तथा ॥६५५ ।। अर्थ - अथवा जैसे आयुर्वेद के शास्त्रों का ज्ञाता एवं अनेक बार की हुई चिकित्सा के अभ्यास से प्राप्त निपुण बुद्धिवाला वैद्य महती अथवा अल्प व्याधि से पीड़ित रोगी को तदनुकूल औषधि देकर उसे नीरोग कर सुखी कर देते हैं ; वैसे ही प्रायश्चित्त शास्त्र में विशारद एवं अनेक बार शिष्यों को दिये हुए प्रायश्चित्त का अभ्यासी आचार्य दोषों से मलिन क्षपक को तदनुकूल प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध अर्थात् निर्मल कर देता है।।६५४
उपर्युक्त गुणवाले आचार्य के अभाव में अन्य भी निर्यापकाचार्य बन सकते हैं
गणस्थितेऽसती-दृक्षे, स्थविरेऽध्यापके तथा।
अस्ति प्रवर्तको वृद्धो, बालाचार्योऽथ यत्नतः ॥६५६ ।। अर्थ - आचारी और आधारी आदि गुणों से युक्त आचार्य, स्थविर या उपाध्याय यदि संघ में न हों तो सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले प्रवर्तक अथवा नवीन बालाचार्य को भी नियपिकाचार्य बनाया जा सकता है।६५६॥
प्रश्न - स्थविर और प्रवर्तक किन्हें कहते हैं तथा निर्यापकाचार्य कौन-कौन बन सकते हैं? ।
उत्तर - जो रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग के ज्ञाता हैं एवं जिन्हें दीक्षा लिये चिरकाल व्यतीत हो गया है उन्हें स्थविर कहते हैं और जो अल्पश्रुतज्ञानी होकर भी सर्वसंघ की मर्यादा, चर्या को जानते हैं, उन्हें प्रवर्तक कहते हैं।
किसी साधु की समाधि का अवसर प्राप्त हो जाय और संघ में आचारी, आधारी आदि गुणों से युक्त आचार्य न हों तो उपाध्याय, ये भी न हों तो प्रवर्तक, ये भी न हों तो स्थविर भी निर्यापकाचार्य हो सकते हैं।
स चारित्रगुणाकाङ्क्षी, कृत्वा शुद्धिं विधानतः । गुरोरन्ते समाचारी,विशुद्ध्यै चेष्टते तराम् ।।६५७ ।।