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मरणकण्डिका - १९३
अर्थ - जिस स्थान पर पत्तों से रहित वृक्ष, कडुवे निम्ब आदि के वृक्ष, सूखा वृक्ष, कटीले वृक्ष, छाया रहित वृक्ष, गिरा-पड़ा हुआ वृक्ष, जीर्ण-शीर्ण वृक्ष, अग्नि या बिजली से जला हुआ वृक्ष या ऐसा जला हुआ कोई स्थान हो तो वह क्षपक की आलोचना के योग्य नहीं है ।।५८१ ।।
क्षुद्राणामल्पसत्त्वानां, देवतानां निकेतनम्।
तृण-पाषाण-काष्ठास्थि-पत्र-पांस्वादि-सञ्चयाः ॥५८२॥ अर्थ - क्षुद्र एवं अल्पशक्ति वाले देवों का स्थान और घास, पत्थर, काष्ठ, हड्डी, पत्ते और धूलि के ढेर वाले स्थान आलोचना के अयोग्य हैं ।।५८२॥
शून्य-धेश्म-रजो-भस्म-वर्चः प्रभृति-दूषिता ।
रुद्रदेवकुलं त्याज्यं, निन्धमन्यदपीदृशम् ।।५८३ ।। अर्थ - शून्य घर या कोई सुनसान स्थान, धूलि, राख एवं मल से मलिन स्थान, रुद्र आदि देवों के स्थान तथा इन्हीं के सदृश अन्य कोई और भी निन्दनीय स्थान आलोचना के योग्य नहीं होते हैं ॥५८३ ।।
· विधारदिप सुख, साधुमालोचनां स्फुटम्।
सूरीणां सर्वथा स्थानमसमाधान-कारणम् ॥५८४॥ अर्थ - जो निर्यापकाचार्य क्षपक द्वारा परिशुद्ध आलोचना करवाना चाहते हैं उन्हें उपर्युक्त अशान्तिकारक स्थान प्रयत्नपूर्वक सर्वथा छोड़ देने चाहिए ।।५८४ ।।
आलोचना योग्य स्थानों का निर्देश जिनेन्द्र-यक्ष-नागादि-मन्दिरं चारुतोरणम् । सरः स्वच्छ-पयः पूर्णं, पद्मिनीखण्ड-मण्डितम् ।।५८५॥ पादपैरुन्नतै: सेव्यं, सर्व सत्योपकारिभिः । आरामे मन्दिरे ननैः, सज्जनैरिव भूषिते ॥५८६ ।। समुद्र-निम्नगादीनां, तीरमक्ष-मनोहरम् ।
सच्छायं सरसं वृक्षं, पवित्र-फल-पल्लवम् ॥५८७ ॥ अर्थ - देवाधिदेव अरहन्त-सिद्ध प्रभु के मन्दिरों में या इन मन्दिरों के समीप सुन्दर तोरणों से युक्त यक्ष एवं नागादि के मन्दिरों के समीप, कमलों से सुशोभित तथा स्वच्छ जल से परिपूर्ण सरोवरों के समीप, सब जीवों का उपकार करने वाले उन्नत वृक्षों से मण्डित स्थान, सज्जनों द्वारा सेव्यमान बगीचा, मन्दिर, सज्जन पुरुषों के सदृश विभूषित समुद्र या नदियों के किनारे, छायादार वृक्ष, पवित्र वृक्ष, पत्र-पुष्प एवं फलों से युक्त वृक्ष तथा रसीले फलों से युक्त वृक्ष और इसी प्रकार इन्द्रियों को मनोहर लगनेवाले सुन्दर स्थान आलोचना के योग्य कहे गये हैं ।।५८५-५८६-५८७॥
शस्तमन्यदपि स्थानमुपेत्य गणनायकः। आलोचनामसंक्लेशां, क्षपकस्य प्रतीच्छति ॥५८८ ॥