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मरणकण्डिका - २००
अर्थ - जैसे बाहर में स्वर्ण पत्र से मण्डित किन्तु भीतर लाख से भरा कंगन खरीद लेनेवाले को तापकारी होता है, वैसे ही सूक्ष्म दोष कह कर बादर दोषों को छिपा रखनेवाली आलोचना दोषशुद्धि नहीं करती अपितु अपार और उग्र सन्ताप देती है।।६१२॥ इस प्रकार सूक्ष्म दोष की आलोचना का वर्णन पूर्ण हुआ।
६. छत्र दोष आद्ये व्रते द्वितीये वा, दोष: सम्पद्यते यदि।
सूरे ! कस्यापि कथ्यस्व, विशुद्ध्यति तदा कथम् ।।६१३॥ अर्थ - क्षपक छल से आचार्य को पूछता है कि हे आचार्यदेव, मुझे यह बात समझाइये कि यदि किसी साधु को प्रथम अहिंसा महाव्रत में या द्वितीय सत्य महाव्रत में या अन्य किसी महाव्रत में दोष लग जाय तो वह साधु किस प्रकार शुद्ध होता है ? ।।६१३ ।।
इत्यन्यव्याजतश्छन्नं, पृच्छ्यते चेत् स्व-शुद्धये।
तदानीं जायते दोषः, षष्ठः संसार-वर्धकः ॥६१४॥ अर्थ - इस प्रकार जब अन्य के बहाने अपनी शुद्धि करने हेतु प्रच्छन्न-रीत्या गुरु से पूछा जाता है तब संसार को वृद्धिंगत करनेवाला छन्न नाम का छठा दोष होता है ॥६१४॥
भोजने च कृतेऽन्येन, तृप्निरन्यस्य जायते ।
अपरस्य तदा शुद्धिर्विहिता परभर्मणा ॥६१५ ॥ अर्थ - यदि अन्य के भोजन करने पर अन्य की तृप्ति होती हो तो दूसरे के नाम से की गई विशुद्धि अन्य की शुद्धि कर सकती है ।।६१५ ॥
आत्मशुद्धिं विधत्ते यः, प्रपृच्छ्य परभर्मणा।
अपरेणौषधे पीते, स्वस्यारोग्यं करोति सः ॥६१६॥ अर्थ - जैसे कोई अन्य पुरुष द्वारा औषधि पी लेने पर अपने को नीरोग कर लेना चाहता है, वैसे ही अन्य अपराधी साधु के बहाने पूछकर क्षपक अपनी शुद्धि कर लेना चाहता है ||६१६ ।।
संयमे चेत् कृतेऽन्येन, विमुक्तिं लभते परः।
परव्याज-कृता शुद्धिस्तदा शोधयते परम् ।।६१७ ।। अर्थ - किसी अन्य के द्वारा संयम धारण कर लेने पर यदि कोई अन्य व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त हो सकता हो तो दूसरे के बहाने से किया गया प्रायश्चित्त भी दूसरे को शुद्ध कर सकता है॥६१७॥
गुरोनिजं दोषमभाषमाणो, दोषस्य य: कांक्षति शुद्धिमज्ञः। मन्ये स तोयं मृगतृष्णिकातो, जिघृक्षतेऽनं शशिबिम्बतो वा ॥६१८॥
इति छन्नं दूषणम् ॥