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मरणकण्डिका - २०३
अर्थ - आलोचक क्षपक मन में यह सोचता है कि मैंने नौ कोटि से किये हुए सर्व दोष मन, वचन और काय की एकाग्रता करके शुद्धिपूर्वक गुरु से कह दिये हैं, ये मुझे प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धि प्रदान करेंगे, किन्तु आगमज्ञान-विहीन मन्द-चारित्री वह आचार्य न दोषों को जानता है और न उनका प्रायश्चित्त ही जानता है॥६२८॥
इदमालोचनं दत्ते, पश्चात्तापं दुरुत्तरम्। दुष्टानामिव साङ्गत्यं, कूटं स्वर्णमिवाथवा ।।६२९ ।।
इति अव्यक्त दोषः।। अर्थ - जैसे दुष्ट पुरुषों की संगति या नकली स्वर्ण खरीदलेना - पश्चाताप ही देता है, वैसे ही अव्यक्त दोषयुक्त की गयी यह आलोचना महान् पश्चाताप देती है ।।६२९॥
प्रश्न - इस दृष्टान्त - दार्टान्त का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर - उसका यह अभिप्राय है कि जैसे कोई अज्ञानी धन समझकर नकली स्वर्ण खरीद ले तो वह नियमत: अहितकारी होता है, क्योंकि उससे कोई भी इच्छित वस्तु नहीं खरीद सकते। इसी प्रकार ज्ञान-बालमुनि के समीप की गई आलोचना अत्यन्त अहितकारी है क्योंकि वह बालमुनि परमार्थ के योग्य प्रायश्चित्त नहीं दे सकता। अथवा जैसे दुर्जनों की मित्रता हितकर नहीं होती दखदायक ही होती है, उसी प्रकार प्राणिसंयम और इन्द्रिय संयम से रहित चारित्र-बालमुनि के सम्मुख की गई आलोचना योग्य प्रायश्चित्त का लाभ न होने से अनेक अनर्थों की उत्पादक होती है।
इस प्रकार अव्यक्त दोष का कथन पूर्ण हुआ।
१०. तत्सेधी दोष पार्श्वस्थानां निज दोषं, पार्श्वस्थो भाषते कुधीः। निचितो निचितैर्दोषैरेषोऽपि सदृशो मया ।।६३० ।। जानीते मे यत्त: सर्वां, सर्वदा सुख-शीलताम् ।
प्रायश्चित्तं ततो नैष, महद्दास्यति निश्चितम् ।।६३९॥ अर्थ - कोई दुर्बुद्धि पार्श्वस्थ क्षपक पार्श्वस्थ आचार्य के समीप जाकर अपने दोष कहता है, वह जानता है कि यह आचार्य सर्व व्रतों में दोषों से भरा है और मैं भी दोषों का भण्डार हूँ, अत: यह मेरे ही समान है। यह मेरे सब दोषों को जानता है और मेरी सुख-शीलता को भी जानता है कि मैं दुख सहन नहीं कर पाता, अत: निश्चित ही यह मुझे कोई कष्टप्रद महान् प्रायश्चित्त नहीं देगा ।।६३०-६३१ ।।
एतस्य कथने शुद्धिः, सुखतो मे भविष्यति।
अयमालोचना दोषो, दशमो गदितो जिनैः ॥६३२ ।। अर्थ - ऐसे आचार्य के निकट दोषों की आलोचना करने पर मेरी शुद्धि सुखपूर्वक हो जावेगी। इस भाव से आलोचना करनेवाले क्षपक के यह दसवाँ तत्सेवी नाम का दोष होता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है॥६३२॥