________________
मरणकण्डिका - २०४
उक्तो दोष: सदोषस्य, सदोषेण न नाश्यते ।
रक्तरक्तं कुतो वस्त्रं, रक्तेनैव विशोध्यते ।।६३३ ।। अर्थ - जैसे रुधिर से लिप वस्त्र को रुधिर शुद्ध या सफेद नहीं कर सकता, वैसे ही सदोष क्षपक द्वारा सदोष आचार्य के निकट की गई आलोचना से अतिचार सम्बन्धी क्षपक के दोष कदापि शुद्ध नहीं हो सकते ॥६३३॥
जिनेशवाक्य-प्रतिकूलचित्ता, यथा विमुक्तिं दवयन्ति पूताम् । तथा विशुद्धिं कुधियो वदन्तो, दोषाकुलानां निज-दूषणानि ॥६३४॥
इति तत्सम-दोषः॥ अर्थ - जैसे जिनेन्द्रदेव की वाणी से प्रतिकूल चित्तवाले जीव पवित्र मुक्ति को अपने से अतीव दूर करते हैं, वैसे ही दुर्बुद्धि क्षपक सदोष आचार्य के समक्ष अपने दोषों की आलोचना करके रत्नत्रय की शुद्धि को अपने से दूर करता है॥६३४ ॥
इस प्रकार तत्सम दोष का नाशन पूर्ण हुआ। हित्वा दोषान्दशापीति, त्यक्त-माया-मदादिकः । स विनीतमनाः सूरेरालोचयति यत्नतः ।।६३५ ।।
इति दश-दोषाः॥ अर्थ - सदोष आलोचना से शुद्धि नहीं होती, अत: विनीत भाववाला क्षपक मुनि निर्यापकाचार्य के पादमूल में दसों दोषों को तथा भय, माया और मद आदि दोषों को छोड़कर प्रयत्न अर्थात् विधिपूर्वक आलोचना करता है।।६३५।।
इस प्रकार आलोचना के दस दोषों का वर्णन पूर्ण हुआ।
___ आलोचना की विधि गृहस्थ-वचनं मुक्त्वा , मौनं च कर-नर्तनम् ।
सम्यक् सुस्पष्टया वाचा, वक्ति दोषान्गुरोः पुरः॥६३६ ॥ अर्थ - गृहस्थ के सदृश उद्धत वचनों का, मौन का और हाथों द्वारा अभिनय आदि का त्याग कर सुस्पष्ट वाणी द्वारा भली प्रकार से गुरु के आगे अपने दोषों की आलोचना करनी चाहिए ।।६३६ ।।
उक्तं च मूक-संज्ञान-बलने, भ्रू-क्षेपं हस्तनर्तनम् । गृहिणां वचनं चैव, तथा शब्दं च घर्घरम् ।।१।। विमुञ्चाभिमुखं स्थित्वा, गुरूणां गुणधारिणम् । स्वापराधं समाचष्टे, विनयेन समन्वितः ।२।।