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परणकण्डिका - २०५
अर्थ - अन्य ग्रन्थ में कहा है कि - गूंगे के सदृश संकेत करना, अंगों को मोड़ना, भौं मटकाना, हाथ नचाना, गृहस्थ के सदृश वचन बोलना एवं घर्घर स्वर में बोलना इत्यादि सर्व विकारों का त्याग कर गुणवान् गुरु के सम्मुख बैठकर विनयपूर्वक अर्थात् दोनों हाथों की अंजुलि बना कर, सिर झुका कर गुरु के बायीं ओर एक हाथ दूर गवासन से बैठकर, न अति शीघ्र और न अति रुक-रुक कर स्पष्ट शब्दों द्वारा आलोचना करनी चाहिए।॥१-२॥
आलोचना प्रारम्भ एक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्च-हृषीकाङ्गि-विराधने ।
असूनृत-वच-स्तेय-मैथुन-ग्रन्थ-सेवने ॥६३७ ।। अर्थ - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की विराधना की हो, असत्य वचन, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पापों में प्रवृत्ति हुई हो ॥६३७ ।।
प्रश्न - इस श्लोक में किसकी और किस प्रकार की आलोचना कही जा रही है ?
उत्तर - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशाल और परिग्रह ये पाँच पाप हैं। दीक्षा लेते समय इन पापों का नौ कोटि से त्याग कर दिया जाता है। फिर भी प्रमाद आदि के कारण दोष लग जाते हैं। पंच स्थावर और उस इन छह काय के जीवों में से मेरे द्वारा पृथ्वीकायिक जीवों की अर्थात् मिट्टी, पत्थर, शर्करा, रेत एवं नमक आदि के खोदने, जोतने, जलाने, कूटने एवं तोड़ने आदि रूप से कोई विराधना हो गई हो; जल, बर्फ, ओस, तुषार आदि पानी के भेद हैं, इनका पान करने, स्नान करने, तैरने, बिखेर देने, ठण्डा-गरम कराने एवं हाथ-पैर तथा शरीर से इनका मर्दन करने, इत्यादि से कोई विराधना हुई हो;
अग्नि की ज्वाला, दीपक एवं उल्मुक आदि आग के ऊपर पानी, पत्थर, रेत एवं मिट्टी आदि द्वारा दबा देने से, लकड़ी आदि के द्वारा उसे कूटने से, सेक आदि करने से तथा दीपक आदि की ज्योति कम-अधिक कर देने से जो विराधना हुई हो;
झंझा और माण्डलिक आदि वायु को ताड़ादि के पत्रों से, सूप से तथा लकड़ी या चद्दर आदि वस्त्रों से रोकने, पंखे या पुढे आदि से हवा करने तथा वायु के सम्मुख गमन करने से जो विराधना हुई हो;
बीज, पत्र, फूल, वृक्ष, लता, झाड़ी, बेल, तृण एवं गुल्मादि अनन्तकाय वनस्पति एवं प्रत्येक वनस्पति के ऊपर चलने, तोड़ने, मसलने, स्पर्श करने, छेदने एवं खाने से इनकी विराधना हुई हो; दो इन्द्रियादि उस जीवों को मारने, रोकने, छेदने, पीटने, तोड़ने एवं बाँधने आदि से जो विराधना हुई हो; इसी प्रकार अन्य चार पापों में भी जो-जो प्रवृत्तियाँ हुई हों, उन सबकी मैं मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक आलोचना करता हूँ।
दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपसां प्रतिकूलने।
उद्गमोत्पादनाहार-दूषणानां निषेवणे ।।६३८॥ __ अर्थ - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप को नष्ट करनेवाला कोई प्रतिकूल आचरण किया हो तथा उद्गम, उत्पादन एवं एषणादि छियालीस दोषों में से किसी भी दोष से दूषित आहार आदि ग्रहण किया हो॥६३८॥