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मरणकण्डिका - २०७
मालिश करना, उपकरण गंदा या जीर्ण या नष्ट हो जायेगा, इस भय से उनका उपयोग नहीं करना, कमण्डलु आदि धोना, उसमें तेल आदि लगाना, वसतिका स्थित घास खाने को अथवा टूटने को ममत्व भाव से रोकना, "मेरे कुल में बहुत यतियों का प्रवेश मुझे इष्ट नहीं" ऐसा मुख से कहना, प्रवेश करने पर कोप करना, उन्हें प्रवेश देने का निषेध करना, अपने कुल की ही वैयावृत्त्य करना, निमित्त आदि का उपदेश देना, सम्बन्धी यतियों के सुख-दुख से अपने को सुखी-दुखी मानना, पार्श्वस्थ आदि मुनियों की वन्दना करना, उनकी आज्ञा उल्लंघन में असमर्थ रहना, उन्हें उपकरण देना, ऋद्धि के स्थाग में असमर्थ रहना, मुनि परिवार में आदरभाव होने से प्रिय वचन और उपकरणदान द्वारा दूसरों को अपनाना. इष्ट रस का त्याग न करना. अनिष्ट रस में अनादर करना. अति भोजन अथवा अतिशयन में आसक्ति रखना (ये क्रमशः ऋद्धि गारव, रस गारद और सात गारव हैं), उन्माद, पित्त-प्रकोप, भूत-पिशाच आदि की परवशता से उत्पन्न दोष, जातिजन या मिथ्यादृष्टि परिवार जनों द्वारा जबरन पकड़ कर गन्ध, माल्य आदि का सेवन, त्यागी हुई वस्तु का भोजन, रात्रिभोजन, मुखवास, ताम्बूल आदि का भक्षण कराये जाने से एवं स्त्रियों या नपुंसकों द्वारा बलपूर्वक अब्रह्म सेवन कराये जाने से, चार प्रकार के स्वाध्याय या आवश्यकों में आलस्य, छिपकर अनाचार, उत्तम अर्थात् धनाढ्य दाता का घर जान कर अन्य साधुओं से पहले ही किसी बहाने वहाँ इस प्रकार पहुँचना कि जिससे दूसरे न जाने पावें, या अच्छा सरस भोजन करके यह कहना कि मैंने नीरस भोजन किया है। पूर्ण भोजन करके भी कहना कि मैंने अल्प ही भोजन किया है, सचित्त भोजन करके कहना कि अचित्त किया है और अचित्त करके कहना कि सचित्त किया है, अकषाय पूर्वक किये दोषों को 'कषायपूर्वक किया' कहना, वसतिका में किये दोषों को 'मार्ग में किये' कहना, रात्रि में किये दोषों को दिन में और दिनकृत दोषों को रात्रिकृत कहना, स्त्रियों का सहवास करना तथा उनके मनोहर अंगों को गृद्धतापूर्वक देखना आदि, और भी अनेक प्रकार के जो-जो दोष लगे हों उन्हें गुरु के समक्ष यथावत् कह देना चाहिए।
स सामान्य-विशेषाभ्यामभिधाय स्वदूषणम् ।
विधत्ते गुरुणा दत्ता, विशुद्धिं शुद्ध-मानसः ॥६४१॥ अर्थ - वह शुद्धचित्तधारी क्षपक सामान्य और विशेष आलोचना द्वारा अपने सर्व दोषों को गुरु के समक्ष यथावत् कह कर गुरु द्वारा दी गई विशुद्धि अर्थात् प्रायश्चित्त को ग्रहण करता है ||६४१।।
प्रश्न - क्षपक का 'शुद्धमानसः' विशेषण क्यों दिया गया है ?
उत्तर - क्षपक छोटे बालक सदृश सहज और सरल भाव से सर्वापराधों की यथावत् आलोचना करता है और गुरु द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त में राग-द्वेष नहीं करता। इतना कठोर प्रायश्चित्त मैं कैसे वहन करूँगा, या इतने उपवास कैसे करूँगा ऐसे कोई विकल्प वह नहीं करता है तथा प्रायश्चित्त का पूर्ण पालन करता है, अत: उसका 'शुद्धमानसः' विशेषण दिया गया है।
गुरु के समीप आलोचना करने का गुण मनुष्यः कृत-पापोऽपि, कृतालोचन-निन्दनः । सम्पद्यते लघुः सद्यो, विभारो भारवानिव॥६४२॥